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“अथ योगानुशासन ” , ” अथातो ब्रह्म जिज्ञासा “, # ऋ # चलो अब शुरू करते है।
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जिसका उल्लेख किया जा रहा है वह नया नहीं है , उसकी शिक्षा/उपदेश पहले से है। बस हमने ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा या विचार प्रारम्भ किया है। कुल मिलाकर यह ज्ञान पहले से मौजूद है और हमेशा रहेगा। इसे सनातनी कहते है। सृष्टि के आदि काल से मौजूद है। जैसा हम जानते हैं कि ब्रह्माण्ड का बीज अक्षर है। तो अक्षर के पहले नाद, बिन्दु एवं अक्षर के बाद स्वर, व्यंजन आदि आदि। नाद को वाक भी कहते है, और वाक दो भागों में विभाजित है एक शब्द वाक जो सरस्वती का क्षेत्र है एवं दूसरा अर्थ वाक जो लक्ष्मी जी का क्षेत्र है।
अव्यय, अक्षर मे फिर क्षर मे बदलता है। यहां इतना समझने का सुझाव है कि तत्व विशेष का नाम ही अक्षर है। इसमें अनन्त ज्ञानघन, अनन्त क्रियाघन,एवं अनन्त अर्थघन इसी को ब्रह्म कहते हैं। सत,चित,आनन्द अर्थात सच्चिदानंद भी ब्रह्म है।
सत मे – मन+प्राण+वाक।
चित – विज्ञान।आनन्द मे – अव्यय की कलाएं।
अव्यय की ज्ञान शक्ति को महसूस करने वाला= प्राण। तथा अर्थ शक्ति को महसूस करने वाला=-वाक। एवं क्रिया शक्ति को महसूस करने वाला = मन। अतः स्पष्ट है अर्थ वाक अक्षर ही ब्रह्माण्ड का बीज है।
अक्षर मे स्वर,व्यजंन, पद ,अर्थात शब्द है। यहां ब्रह्माण्ड की शुरुआत के पहले एक अत्यंत महत्वपूर्ण अक्षर “ऋ ” की बात करते हैं।
यह ” ऋ ” वर्णमाला का तेरहवां वर्ण है, एवं एक स्वर वर्णमाला का सातवां वर्ण है। ऋ → र +ई से मिलकर बना है, जहां र व्यजंन है तथा ई स्वर है। व्यजंन की मात्रा नहीं होती, जबकि स्वर की मात्रा होती है। “ऋ ” में स्वर+व्यजंन दोनों हैं अतः इसकी मात्रा व्यजनों की नीचें जुड़कर होती है जैसे ऋषि, ऋचा, आदि। ऋ को हम र्र की तरह समझ सकते हैं जिसका अर्थ भी चलों अब शुरू करते हैं। मतलब अभी शान्ति थी एवं अब हलचल शुरू हो रही। यहां शान्ति, क्रिया का आधार है। मतलब निष्क्रियता , सक्रियता का आधार है।
आईये यहां थोड़ा विज्ञान की भाषा से समझते हैं- तीन महत्वपूर्ण विद्युत कण मे प्रोट्रान, इलेक्ट्रॉन को भागने नहीं देता अतः मजबूर होकर चक्कर लगाता रहता है। पर इलेक्ट्रॉन को ,प्रोट्रान की शक्ति( दादागिरी) पसंद नहीं है। इसलिये अप्रीति रखता है।पर इसके विपरीत प्रोट्रान को इलेक्ट्रॉन से प्रीति है। पर यहां यह हलचल अर्थात चक्कर लगाने का कारण या इसका आधार तीसरा है- न्यूट्रान है जो स्वयं निष्क्रिय है। अतः निष्क्रियता ही सक्रियता का आधार है। चेतना की निर्वात स्थिति, चेतना की सबसे शक्तिशाली स्थिति है। निर्वात स्थिति रचनात्मकता का अक्षय क्षेत्र है। जब निराकार, निर्गुण ब्रह्म जो चेतन है उसकी प्रेरणा से अचेतन प्रकृति मे क्षोभ होता है तब वे मूल तत्व कार्योन्मुख हो जाते हैं। ये मूल तत्व अक्षर है तथा निर्गुण ब्रह्म अव्यय है। चेतन तत्व का शुद्ध स्वरूप महर्षि याज्ञवल्क्य ने देवी गार्गी को उपदेश किया हे गार्गी वह अक्षर है। परावाक जो शब्द ब्रह्म है। वहीं वह बिन्दु है जो अव्यक्त है जोअपचय को प्राप्त कर फूलकर फटता है ठीक वैसे ही जैसे बीज पहले नमी और गर्मी से फूलकर फककर अंकुरित होता है। परावाक से पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी वाक द्वारा मुंह से उच्चारित होता है।अतः परावाक बिन्दु से त्रिकोण रश्मि स्वरूप में प्रकट होता है।अतः त्रिकोण के तीनों बिन्दु हैं→ चिदशं,अचिदशं,चिदाचिदशं। अहम,इदम,त्वम। ईच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति। परब्रह्म,अपरब्रह्म, परापर ब्रह्म। ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट। ……(लगातार)
