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अति महत्वपूर्ण प्रश्नों मे से आज का
प्रश्न ― मरने के बाद क्या होता है ?
Question- What happens after we die ?
उत्तर :- मरणोत्तर जीवात्मा की दो प्रकार की गति है पहली गति है और दूसरी अगति है।
सबसे पहले अगति जानते हैं अगति माने गमनाभाव अर्थात मरने के बाद कही नही जाना।
अगति 4 प्रकार की होती है।
१- तत्वदर्शी (ब्रह्म भाव ) तत्व ज्ञान से अविद्या और अविद्या के कार्य लिंगशरीर का बाध होने से कहीं जाता ही नहीं, अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्म भाव में स्थित हो जाता है।
२- दूसरी अगति का नाम “मुक्ति ” है। वह भी दो तरह की है:-
(अ) क्षिणोदर्क मुक्ति- वह जो शरीर, इन्द्रिय प्राण आदि अनात्म पदार्थों में से आत्म व्याप्ति को नेति नेति प्रक्रिया के द्वारा हटाकर निराकार निर्विशेष विशुद्ध आत्म दर्शन से प्राप्त होती है।
( ब ) भूमोदर्क मुक्ति – ” सर्वं खलु इदं ब्रह्म।”
” इदं सर्वं यदयमात्मा “
” सर्वं वासुदेवः।”
प्रक्रिया द्वारा के द्वारा आत्म व्याप्ति के विस्तार होने पर विश्वात्मदर्शन से जो प्राप्त होती है वह भूमोदर्क मुक्ति है।
३- तीसरी अगति मे पृथ्वी में ही मरणोत्तर अस्थिहीन कीट-पतंग,वृक्षादि योनि प्राप्त होने पर अगति है।
४- चौथी अगति मे अस्थियुक्त पशु-पक्षी आदि योनि ‘चतुर्थ अगति’है क्योंकि मृतात्मा को पृथ्वी छोड़कर लोकान्तर में जाना नहीं पड़ता।
अब चार प्रकार की गति का परिचय प्रस्तुत है―
१- ब्रह्म लोक गति।
२- देवलोक गति।
३- पितृलोक गति।
४- निकृष्ट गति।
यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या बिना मार्ग के भी कोई कहीं आ-जा सकता है ?
इसका उत्तर ऋग्वेद १०/८८/१५ मे बताया है-
” द्वे सृती अश्रृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्र्वमेजत् समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ।। “
मैंने मनुष्यों के दो मार्गो का श्रवण किया एक देवयान तथा दूसरा पितृयान।
समस्त विश्व के प्राणी मरने के बाद इस लोक से लोकान्तर को प्रस्थान करते हैं तब ” मातरं पितरम् अन्तरा ” – पृथ्वी और स्वर्ग के मध्यवर्ती अन्तरिक्ष से उन्हीं दोनों मार्गों में होकर समेति भलीभाँति जाते हैं।
मृत्यु के संचार पथ ( गति मार्ग ) के पहले पितृयान जिसे दक्षिणमार्ग,धूममार्ग,कृष्ण मार्ग,पितृमार्ग कहते है दो भाग है (अ) यमपथ।
(ब) पितृपथ ,यह मृत्यु का स्वपथ है।
मृत्यु के संचार पथ का दूसरा मार्ग देवयान मार्ग जिसे उत्तर मार्ग, अर्चिमार्ग,शुक्लमार्ग, भी कहते हैं इसके भी दो गति मार्ग हैं
अ― देवपथ ।
ब ― ब्रह्म पथ ।
देवपथ मे मृत्यु का अपेक्षाकृत संचार है। जबकि ब्रह्म पथ अवरुद्ध है।
जीवात्मा की गति मे देवो का सहयोग माना जाता है।
जीवात्मा पृथ्वी से जब लोकान्तर के लिए प्रस्थानोन्मुख होता है, तब अग्नि अपने सहकारी १० देवों के साथ उसकी सहायता करता है। इन सभी दस सहयोगी देवों के नाम हैं- जातवेदा,वैश्र्वानर,द्रविणोदा,तनूनपात,नाराशस,त्वष्टा, वनस्पति, ग्रावाण,रथ,आप।
” तस्मिन् एतास्मिन अग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति।”
इस श्रुति वचन से देवों का सहयोग स्पष्ट अवगत होता है।
यहां पर यह भी समझ ले आध्यात्मिक चक्षु- सूर्य
आध्यात्मिक वाक – अग्नि
आध्यात्मिक प्राण – वायु है।
जिसकी गति होनी है वह प्राण है, अर्थात जीवात्मा के प्राणों की गति किस शरीर द्वारा,
द्युलोक रुपी अग्नि में श्रद्धा की आहूति जिससे प्रकाशवान चन्द्रलोकवर्ती वृद्धि क्षयमुक्त सोमात्मक यजमान(मृतक) का दिव्य शरीर निष्पन्न होता है।
उसी शरीर द्वारा जीवात्मा अपने किये हुए पुण्य कर्मो का फलोपभोग स्वर्ग मे करता है।
ऋगवेद के १० वें मण्डल के १४ वें सूत्र से लेकर १८ वें सूत्र तक जीवात्मा की गति के सम्बंध में महत्वपूर्ण मंत्र उपलब्ध हैं।
जीवात्मा मनुष्य शरीर से जब निकलता है तो स्थूल शरीर यही पड़ा रहता है।उसकी अग्नि संस्कार द्वारा भस्म की ढेरी बन जाती है या खुला मे छोड़ने पर सिंहादि का आहार बन कर घृणित विष्ठा बन जाता है। और यदि पृथ्वी मे गड़ा दिया तो कीड़े पड़ते हैं और कृमि रुप प्राप्त करता है।
परन्तु प्राणो का साथ देने वाला सूक्ष्म शरीर / लिंगशरीर है जो 17 तत्वों का संघात है। यहां आप यह भी जान लें स्थूल शरीर 24 तत्वों का होता है।
भले ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर अलग हो गया है पर कुछ भौतिक अंश उस सूक्ष्म शरीर मे रह जाते हैं। जब लिंगशरीर से जीवात्मा प्रस्थान करता है तो भूत सूक्ष्म उसका साथ अवश्य देंगे।
जब आहुति द्रव्य अग्नि प्रक्षिप्त वाष्प भाव को प्राप्त हुये सूक्ष्म परमाणु साथ मिल जायेंगे।
सूक्ष्म भूत साथ के कारण लिंगशरीर परलोक यात्रा करता है।
पुण्यात्मा अपने गंतव्य स्वर्गादि में पहुंच कर नये दिव्य विग्रह को धारण करता है और उसके यातना शरीर का अंत हो जाता है।
नरकगति में यातना शरीर काअन्त नहीं होता, इस यातना शरीर में केवल भूतसूक्ष्मों का ही अस्तित्व है, आहुतिद्रव्य के अपूर्वीभूत सूक्ष्म वाष्प-अंशों का नहीं।