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प्रश्न – क्या ईश्वर है ? ( Does the existence of God ?)
उत्तर :- क्या भगवान है ? ऐसा पूछकर मनुष्य अपनी धारणा को मजबूती देना चाहता है, यदि कोई कहे कि भगवान नहीं है, तो वह निश्चिंत होकर मनमानी करना चाहता है, और यदि उत्तर मे कोई कहता है कि हां भगवान है तो तुरन्त दूसरा प्रश्न करता है कि क्या मुझे दिखा सकते हो? आदि आदि।
इसका उत्तर स्वयं भगवान ही श्रीमद्भगवद्गीता के दशम (१०) अध्याय के श्लोक नम्बर ८ मे दिया है-
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भाव समन्विताः।।
मै सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूं, मुझसे ही सम्पूर्ण जगत चेष्टा करता है-इस प्रकार मानकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त विवेकीजन मेरा निरन्तर भजन करते है।
इतना ही नहीं भगवान ने स्वयं अपना निवास स्थान भी बताया है–
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० श्लोक १५
” सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनंच ।
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो ,
वेदांतकृद्वेदविदेव चाहृम ।।
“भगवान कहते है कि मै ही सब प्राणियों के हृदयँ मे अन्तर्यामी रुप से स्थित हूं……. “
अन्त मे कहते है कि सब वेदो द्वारा मै ही जानने योग्य हूं, वेद का कर्ता मैं ही हूं और वेद का ज्ञाता भी मैं ही हूं ” वेदवित “
मुझसे ही स्वरुप की स्मृति होती है आदि।
अभी तक आप भगवान का उदघोष जान पाये कि मैं हूं तथा प्रत्येक जीव के हृदय मे निवास भी करता हूं, और जिसनें भी पाया हृदय मे ही पाया।
यहां तुरंत दूसरा तीसरा प्रश्न खड़ा होता है कि क्या भगवान को दिखा सकते हो?
या क्या ईश्वर को देखा जा सकता है ?
उत्तर मे मै भगवान को न दिखा सकता हूं और न दे सकता हूं क्योंकि भगवान ने गीता के सप्तम अध्याय के श्लोक नम्बर ८,९,१० मे कहा है- जल मे मैं रस हूं अर्थात टेस्ट हूं उसे तुम देख नहीं सकते आदि आदि ।
अब आप तीसरे प्रश्न का उत्तर जानने की तरफ होगें क्या ईश्वर को देखा जा सकता है?
उत्तर हां देखा जा सकता है-
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ११ श्लोक संख्या ५४
” भक्तया त्वनन्यया शक्त अहमेवंविधोअ्र्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परम् तपं ।।“
केवल और केवल अनन्यभक्ति द्वारा मुझे उस रुप मे समझा जा सकता है, जिस रुप मे मै तुम्हारे समक्ष खड़ा हूंऔर उसी प्रकार मेरा साक्षात दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।
अर्थात जब ज्ञान के दिव्य चक्षु खुले ।
क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता के ही अध्याय ११ श्लोक संख्या ५३ मे कहा है-
” नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्यं एवं विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।“
मुझे न वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से ,न ही पूजा से ,जाना जा सकता है, कोई इन साधनों के द्वारा मेरे रुप को नहीं देख सकता।
मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साकार रुप को भगवान मानकर पूजें, क्योंकि
” कृष्णो वै परमं दैवतम “
कृष्ण भगवान हैं, और वे कभी कभी पृथ्वी पर अवतरित भी होते हैं।एक परमात्मा और उसकी प्राप्ति की एक निर्धारित क्रिया है।
भगवान कहते है कि मुझमें भली भांति चित्त को स्थिर करना संभव न हो तो अभ्यास की सहायता से बार बार प्रयत्न करके मुझे प्राप्त करने की आशा रख।
अव्यक्तं व्यक्ति मापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भाव मजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम ।।
बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं पहले निराकार था और अब मैने स्वरुप लिया है, ऐसा वे अपने अल्प ज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।
सरलता से जानना है तो खुद ही विचार करें कि जब चित्र है तो चित्रकार भी होगा ।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो तत्व से जानते हैं वे मनुष्य ज्ञानवान हैं।
” नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः।
मूढोह्मनाभि जानाति लोको मामजमव्यय।।”
अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता,….
अतः तत्व से जानो।
गामा विश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधिः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।
भगवान कहते हैं कि मैं प्रत्येक लोक मे प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा मे स्थित रहते हैं, मैं चन्द्र बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ।
मैं ही आल्फाऔर ओमेगा हूँ।
अतः भगवान है, हृदय मे बसते हैं।
अतिसय प्रीति देखि रघुवीरा।
प्रगटे हृदय हरन भव भीरा।।
या ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशे अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
( ईश्वर सभी भूतप्राणियों के हृदय में रहते है। )
साकार भी होते है। ज्ञान चक्षुओं से देखें भी जा सकते हैं, या दिव्य चक्षुओं से देख सकते है। भगवान को पाने की एक निर्धारित प्रक्रिया है।