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जैसा खाओं अन्न ,वैसा बने मन ।
जैसा पीओ पानी ,वैसी बने वाणी।।
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खाया हुआ अन्न तीन भाग में विभक्त हो जाता है स्थूल असार अंश मल बनता है, मध्यम अंश से माँस बनता है, और सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टि होती है। जिस प्रकार दधि के मंथन से उसका सूक्ष्म अंश ऊपर आकर घृत बनता है, उसी प्रकार अन्न के सूक्ष्मांश से मन बनता है।
उसी प्रकार पानी के स्थूल अंश से मूत्र, मध्यम अंश से रक्त एवं सूक्ष्मांश से वाणी बनती है।
अतः अन्न और पानी की पवित्रता पर जोर दिया है। कहा गया है :-
” आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धो धुव्रा स्मृतिः
स्मृति लाभे सर्वग्रन्थीनों विप्रमोक्षः।”
आहार शुद्ध होने से अर्थात खानपान शुद्ध होने से, सत्व की शुद्धि होती है। ( सत्व माने― मन,बुद्धि, चित्त, और अहंकार ) सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बनती है। पवित्र और निश्चय बुद्धि के द्वारा ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते हैं। उस विवेक से अज्ञानजन्य निविड़ बन्धन खुलते हैं तथा सभी ग्रन्थियों का मोचन होता है।
एक अन्य प्रकार से अन्न और पानी की शुद्धता की अवश्यकता क्यों है समझते हैं:- भगवान वैश्र्वानर ( जठराग्नि ) प्रत्येक प्राणी में बैठकर प्राण और अपान वायु को सहकारिता से छः प्रकार के भोज्य अन्न( चोष्य,पेय,लोहय,भक्ष्य,भोज्य,चर्व्य )
का भक्षण करते है। भोजन से उदरपूर्ति ही नहीं होती अपितु श्री भगवान की पूजा भी होती है। यही कारण है कि भोजन की पवित्रता अति आवश्यक है।
– पहले स्थान विचार मे अशुचि स्थान में बैठकर या खड़े खड़े भोजन करना ठीक नहीं।
– दूसरे स्वयं पवित्र होकर भोजन करें।
– तीसरे भोजन सात्विक हो।
– चौथा पात्र स्वच्छ और परिष्कृत हो।
– अपवित्र व्यक्तियों और पापियों से छुए हुआ भोजन न करें।
– भींगे पैर भोजन करने से आयु बढ़ती है।
– भोजन करते समय एक उत्तरीय (दुपट्टा) वस्त्र ओढ़ लेना चाहिए, इससे बाहरी बाधा नहीं पहुंचती है।
अन्त मे संसार की सब वस्तुएं भगवान की उत्पन्न की हुई है, अतः भगवान को बिना अर्पण किये खाने से निस्संदेह पाप होगा।