
कला :- शक्ति रुप मे तत्वों की क्रियाएं है।
कला :- ” क ब्रह्म लीयते आच्छाद्यतेंं यया, सा कला “
अर्थात जिसके द्वारा ‘ क ” ( ब्रह्म ) लीन ( ढका हुआ ) है। उसे कला कहते है। इन्होंने ब्रह्म के पारमार्थिक स्वरूप को ढक रखा है, इसलिए कलाएं है।
” कलयति कलते वा कर्तरि अच्, कल्यते ज्ञायते कर्मणि अच वा । “
अर्थात जो किसी के कर्म अथवा स्थिति को द्योतित करती है, वह कला है ।
” चन्द्र मण्डलस्य षोडशे भागे यथा च चंद्रस्य षोडशभागस्य कला शब्द वाच्यत्वम । “
जैसे चन्द्रमा के सोलहवें भाग को एक कला कहते है।
षोडशानां कलानामेका कला^तिशिष्टा भूत,
सा^न्नेनोपसमाहिता प्रज्वालीत् ।।
परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला, अन्न मे मिलकर अन्नमयकोश के द्वारा प्रकट हुई।
परब्रह्म मे सम्पूर्ण कलाएँ 64 बतायी गयीं हैं।
वैदिक मान्यतानुसार परब्रह्म का त्रिपाद उर्ध्वलोकों में (48) एक पाद् ( चतुर्थांश) भूलोक में (16) कलाएँ।
” त्रिपादर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोस्येहा भवत्पुनः “
― ऋग्वेद 10:90:4
इसी कारण भूलोक पर 16 कलाएँ ही विद्यमान हैं और इन्हें ही ” पूर्ण कला” कहा जाता हैं।
― षोडश संख्या पूर्णता बोधक पुरुष सूक्त
१- उद्भिज्जोंं ― एक कला (अन्नमय)
२- स्वेदजों ― दो कला(अन्नमय,प्राणमय)
३- अण्डजों―तीन कला( अन्नमय,प्राणमय,मनोमय)
४-जरायुजो― चार कला(अन्नमय,प्राण मय,मनोमय,विज्ञानमय )
५- मानवों ―पांच कला ( +आनन्दमय)
६- महामानवों― आठ कला( ५+६अतिशायिनि+७विपरिणामिनी +८संक्रामिणी)
९- प्रभ्वीकला- असम्भव को सम्भव करना।
१०- कुण्ठिनी कला ―पंच महाभूतों को प्रभावित करना।
११-विकासनी कला- भगवान ने 3पैरों से ब्रह्माण्ड नापना।
१२- मर्यादिनी कला― श्रीराम के पास।
१३- संहादिनी कला― अऋतु मे फलफूल उत्पन्न करना
१४- आह्वादिनी कला ― श्री राधा।
१५- परिपूर्ण कला- श्रीकृष्ण।
१६- स्वरुपावस्था कला ― सभा कुछ समेटकर मूलावस्था मे अवस्थित होना।