
मनुष्य का अनेक योनियों मे जन्म , मनुष्य ,मनुष्य ही बनेे बिल्कुल जरूरी नहीं :―
~~~~~~~~~~|||~~~~~~~~~~
श्री ब्रह्म-संहिता के श्लोक ५४ के अनुसार
यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-
बन्धानुरुपफलभाजनमातनोति ।
भगवान एक इंन्द्रगोप जैसे क्षुद्र कीड़े से लेकर देवराज इंद्र पर्यन्त समस्त जीवों को उनके कर्मफलों के अनुरूप फल भोग कराते हैं। ये एक नियम है ,दूसरा भगवतगीता के ८अध्याय का ६ श्लोक में कहा गया है
” यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
जिस – जिस भाव को स्मरण करते हुए व्यक्ति अपना शरीर छोड़ता है, उसी स्थिति को निश्चित रुप से वह प्राप्त करेगा।
इसी बात को अन्य तरीक़े से कहा गया है;
” अंत मति सो गति ” जैसे :-
१-जड़ भरत राजा को मरते समय मृग शावक पर आसक्ति होने से अगला जन्म मृग योनि मे पाया।
२- इन्द्र का पद प्राप्त होने पर भी ऋषि श्राप से” नहुष” को सर्प बनना पड़ा।
३- राजा ” नृग” को गिरगिट बनना पड़ा।
४- मुनि” ध्रुव” को राजकुमार पर आसक्ति होने से अगले जन्म में राजकुमार का जन्म मिला।
इससे सिद्ध है कि आदमी अगले जन्म आदमी ही होगा जरूरी नहीं है।
श्रीईशापनिषद के मंत्र सत्रह मे कहा है इस भौतिक जगत मेंं भौतिक प्रकृति जीवों को उनकी इन्द्रियतृप्ती की प्रवृत्तियों के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर प्रदान करते हैं।जो जीव मल का स्वाद लेना चाहते हैं, उन्हें ऐसे शरीर प्रदान किये जाते हैं जो मल खाने के लिये सर्वथा उपयुक्त है- जैसे शूकर का शरीर।
इसी तरह जो दूसरे पशुओं का मांस खाना और रक्त पीना चाहता है, उसे उपयुक्त दातोंऔर पंजों से युक्त बाघ का शरीर प्रदान किया जाता है। परंतु मनुष्य के दांत इस तरह बनाए गए हैं कि वह शाक को काटकर चबा सके बस ।
वैसे तो विकास क्रम मे पहले संसार जलमग्न था तो पहले जलचर जीव फिर शाक जीवन मे ,फिर जीव -कीटाणु मे आया; फिर कीट से पक्षी जीवन मे, पक्षी से पशु जीवन मेंं, और पशु जीवन से मनुष्य जीवन में आया। यदि अब वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर ले तो सर्वाधिक विकसित रुप होता है।
लगातार……….