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“आत्मा वा>रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः “
आत्मा को देख सकते हैं, सुन सकते हैं, मनन कर सकते हैं और पाने / जानने का प्रयास भी कर सकते हैं। पर कैसे ? कहा सुना गया है कि ” न अयम आत्मा प्रवचन लभ्य ” अर्थात न यह आत्मा प्रवचन से प्राप्त होती है, न विशिष्ट बुद्धि से प्राप्त होती है, न बहुत सुनने समझने से प्राप्त होती है, बल्कि लाखों भाविकों मे से जिस किसी एक का वरण कर लेता है, जिसके ह्रदय मे जाग्रत होकर उगंली पकड़ कर चलाने लगता है ,वही उनके निर्देशन मे चलकर उसे प्राप्त करता है। अब हमारा वरण कौन कर लेगा? कौन हमारी उंगली थाम लेगा ? ईश्वर या भगवान ? फिर यहां वहीं प्रश्न खड़ा है कि क्या ईश्वर को देखा जा सकता है, या क्या भगवान को दिखा सकते हो ? उत्तर गीता के 7ch 8verse मे न दिखा सकता हूँ और न दे सकता हूं क्योंकि पानी में जो टेस्ट है वो मैं हूं,सूर्य&चन्द्रमा का प्रकाश में हूं, वैदिक मन्त्रों मे ओंकार मे हूं मनुष्य मे सामर्थ्य मैं हूं, पृथ्वी मे आद्य सुगंध मे हूँ, अग्नि की ऊष्मा हूँ, समस्त पदार्थों का बीज हूँ,(गीता अध्याय ७ श्लोक ८)फिर कैसे देख सकते हो, इसका उत्तर भी गीता के अध्याय ११ श्लोक ५४ मे दिया है कि केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रुप मे समझा जा सकता है जिस रुप मे मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूं, और उसी प्रकार मेरा साक्षात दर्शन भी किया जा सकता हैं, केवल ईसी विधि से तुम (अर्जुन) मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो। कहा गया है ” हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होई मैं जाना।” प्रकट होना माने एकदम से आ पहुंचना अर्थात अव्यक्त से व्यक्त हो जाना। कोई आकार में है परन्तु व्यक्तिगत रुप से स्थूल रुप में दर्शन नहीं देता। जैसे आकाश में बादल छ जाने पर दिन के समय सूर्य अदृश्य हो जाता है, यहां वो दृश्यमान नहीं है, परन्तु वास्तव मे बादलों के पार ज्यों का त्यों है। यजुर्वेद अध्याय ०१ मंत्र १५ ” अग्ने तनूर असि ” अर्थात परमेश्वर सशरीर है। यजुर्वेद अध्याय ५ मंत्र ०१ ” मे भी यही बात कही है कि सर्वव्यापक, सर्वपालन कर्ता सतपुरुष सशरीर है। यजुर्वेद अध्याय ४० मंत्र ८ जिस प्राणियों को, जिस परमेश्वर की चाह है, वह या उसका शरीर बिना नाड़ी का है, वीर्य से बनी ५ तत्व की भौतिक काया से रहित है, तथा तेज पुंज का ( स्व ज्योति) स्वयं प्रकाशित शरीर है जो शब्द रुप अर्थात अविनाशी है। इसीवजह से निराकार कहा गया है।अरुपम शब्द निराकार नहीं यह दिव्य सच्चिदानंद स्वरूप का सूचक है। अब आत्मा को जानते हैं। जगत मे पदार्थ है, तो एंटीमैटर होना जरूरी है। प्रकाश है, तो अंधकार भी है। जीवन है, तो मृत्यु है। प्रोटोन है तो एंटीप्रोटोन भी हैं। अर्थात कोई भी चीज बिना प्रतिकूल के हो ही नहीं सकती। ऐ एंटीमैटर ही आत्मा है। संसार ही नहीं हो सकता अगर प्रतिकूल शाश्वत जीवन न हो। शाश्वत जीवन मोक्ष है, परमात्मा है। यही कारण है संसार के प्रतिकूल मोक्ष की कल्पना है। आत्मा अविनाशी है। जैसे उर्जा नष्ट नहीं होती।
शेष लगातार…….