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भगवान ऋषभदेव जी ने कहा है कि यह देह क्षुद्र कर्मो के लिए नहीं है, तप द्वारा ब्रह्म सुख का अनुभव करने के लिए है, यद्यपि यह मानुष कलेवर सुदुर्लभं है।तथापि क्षण भंगुर है, योनियों में भटकता जीव संचित पुण्यों के प्रताप से भगवत कृपा द्वारा मनुष्य जन्म पाता है, क्षण भंगुरता के कारण विश्वास कभी नहीं किया जा सकता अतः अनित्य वस्तु से नित्य वस्तु को प्राप्त करना परम लाभ है।अतः मनुष्य अपने स्वरूप का साक्षात्कार करें।
देह के साथ ही दुःख का उदय होता है, जन्म मरण दोनों मे ही दुःख का अनुभव होता है। रोग, भोग,संयोग-वियोग, अनुकूल-प्रतिकूल, सब देह के सम्बध है। इसी तरह धर्म-कर्म, अवस्था-स्थिति, सब देह के कच्चे-बच्चे है, अतः देह का सम्बध ही दुख का हेतु है। देह चाहे एक तत्व से बना हो चाहे अनेक से जड़ धातु मे इसका घटन या गठन बिना धर्माधर्म के तो हो नहीं सकता, धर्माधर्म बनता है कर्म से , कर्म होता है शरीर से फिर तो देह ही संतान परम्परा का भी कभी उच्छेद नहीं होगा, क्योंकि पहले से ही विहित और निषिद्ध कर्म होते आये है, होते है, वैसे ही होते रहेंगे।
देह से कर्म और कर्म से देह ये दोनो बीज वृक्ष के समान आदि परम्परा से चले आ रहे है।हमारे हाथ मे सिर्फ कर्म है , यहाँ कर्म का अर्थ (मायने) या परिभाषा आपको आती ही होगी, यदि नहीं तो जब विचार साकार रुप लेते है तो कर्म बन जाते है, जिसक फल दुःख-सुख हमे जीवन मे देखने को मिलता है। तो अब विचार संभालने होगें, विचार परिस्थितियों के अनुसार बनते बिगड़ते हैं, जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों।एक कमरे में अश्र्लील चित्र लगे हो तो उस कमरे में जाते ही मन मे वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु- सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन मे अच्छे विचार, प्रभु का चिंतन ही बना रहता है,।तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं, आशा है कर्म को संभालना अब समझ में आ गया होगा शेष आपकी सेवा में लगातार…..