774 total views, 1 views today

कर्म व्यवस्था में प्रकृति का गहरा हाथ है। वहीं इस पेचीदी व्यवस्था को निष्पक्ष रीति से सम्पन्न करती है। विश्व में प्रत्येक कार्य की प्रतिक्रिया होती है। दीवालपर एक गेंद को हम जितनी शक्ति से फेंकते हैं, उतनी ही शक्ति से वह लौटकर आती है।गेंद का फेंकना क्रिया है और लौटकर आना प्रति क्रिया है। पहाड़ के नींचे या गुम्बद में खड़े होकर हम आवाज देते है तो वह आवाज लौटकर आती है। आवाज देना क्रिया है और उसका लौटकर आना उसकी प्रतिक्रिया है। पृथ्वी पर हम पैर रखते हैं, इससे दबाव पड़ता है, यह क्रिया है,।पृथ्वी अपनी शक्ति से पैर को ऊपर उठाने का प्रयत्न करती है, यह प्रतिक्रिया है। चूंकि ये दोनों शक्तियां समान होती हैं, इसलिये दोनों ओर के स्पष्ट दबाव का पता नहीं चलता।यदि उनमें थोड़ी भी असमानता हो तो यह प्रतीत होने लगे ।
एक वयक्ति ने दूसरे को गोली मार दी, एक ने दूसरे का धन हड़प लिया, एक ने दूसरे के मकान में आग लगा दी आदि । इन क्रियाओं से विश्व की शक्तियों मे असमानता उत्पन्न हो गयी है। प्राकृतिक कर्तव्य समानता लाना है ।ईश्वर को सौंपा गया यह प्रमुख कार्य है। वह हर क्रिया की प्रति क्रिया को लाकर समता को स्थिर रखती है।
प्रति क्रिया के समय और आकार में अन्तर हो सकता है। परन्तु प्रति क्रिया न हो ये नहीं हो सकता। कर्म एक क्रिया है, फल उसकी प्रतिक्रिया है। यदि प्रकृति के नियम निश्चित और अटल है तो कर्म और कर्मफल की वयवस्था भी स्वाभाविक और प्राकृतिक नियमों के आधार पर अवस्थित है। इन नियमों को बदलना किसी वयक्ति विशेष की सामर्थ्य के बाहर है । इसलिए कहा जाता है कि ” कर्म गति टले नहीं टाले “