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” ज्ञान और कर्म अलग नही है “
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सनकादि ऋषियों ने ज्ञान का, याज्ञवल्क्य जी ने कर्म का और दत्तात्रेय जी ने योग का उपदेश किया है।
ज्ञान :-
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१- ” सतत्वात संजायते ज्ञानम् “
२- तत्व के अर्थरुप मुझ परमात्मा का प्रयत्क्ष दर्शन ज्ञान है।
३- अनुभव से अनुभव की तरफ जाने से ज्ञान होता है।
४- ईश्वर की प्रत्यक्ष जानकारी ही ज्ञान है।
५- ज्ञानम् निहिताम चेतनायाम।
कर्म :-
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मनुष्य के पुराने विचार जब साकार रुप धारण कर लेते है तो वे कर्म कहलाते हैं।प्रत्येक कर्म की भूत,भविष्य, वर्तमान ये तीनो अवस्थाएं होती हैं।
ज्ञान ऋषि का क्षेत्र है।
कर्म देवता का क्षेत्र है।
दोनों के बीच छन्द की सत्ता है।जो कभी कण को ढाकता है तथा अनंत को उभारता है, और कभी अनंत को ढ़ाकता है तथा कण को उभारता है।
A- ज्ञान ऋषि का गुण है, एवं संकुचन की दिशा है अणोरणीयान की दिशा है।
B- कर्म देवता का गुण है, एवं प्रसार की दिशा है महतो महियान की दिशा है।
कर्म के दो दो क्षेत्र है :-
१- अनंत का कण मे संलयन।
२- कण से अनंत तक का विकास।