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ब्रह्मा 2
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भास्वान् यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजः, स्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता, गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।।
( श्री ब्रह्म-संहिता श्लोक ४९ )
अर्थ ― सूर्य जिस प्रकार सूर्यकांतादि मणियों मे अपने तेज का कुछ अंश संचार करता है, उसी प्रकार विभिन्नांश-स्वरुप ब्रह्मा जिनसे प्राप्त शक्ति द्वारा ब्रह्माण्ड का विधान करते हैं, उन आदि पुरुष भगवान गोविंद का मैं भजन करता हूँ।
तात्पर्य :- ब्रह्मा दो प्रकार के हैं:कुछ कल्पों में जब भगवत शक्ति का आवेश किसी योग्य जीव में होता है, तो वह जीव ब्रह्मा के पद पर आकर ब्राह्मण्ड की सृष्टि करता है।जिन कल्पों मे कोई जीव उपलब्ध नहीं रहता, तो पूर्व कल्प के ब्रह्मा के मुक्त हो जाने के उपरांत, कृष्ण निज शक्ति का विस्तार कर रजोगुणावतार ब्रह्मा की रचना करते हैं। विधान के आधार पर ब्रह्मा सामान्य जीव से श्रेष्ठतर हैं किन्तु वे प्रत्यक्ष भगवान नहीं हैं। तत्वतः ब्रह्मा की तुलना में शम्भु में अधिक भगवत्ता रहती है।
जीवों मे पचास गुण,जबकि ब्रह्मा मे पचपन गुण
जीवों मे पचास गुण, जबकि शम्भू मे ब्रह्मा से भी अधिक मात्रा मे गुण पाये जाते हैं।