April 16, 2019

कुण्डलिनी शक्ति – भाग 4

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कुण्डलिनी शक्ति – भाग 4
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कुण्डलिनी जागरण की विधियां
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एकांत मे सिद्धासन पर बैठ दोनो नथुनो से प्राण वायु का आकर्षण करके, बलपूर्वक अपानवायु मे मिलाने का प्रयत्न करे और जब तक सुषुम्ना क्षेत्र मे वायु पहुंचकर प्रकाश नहीं पाए, तब अश्विनी मुद्रा से शनैः शनैः गुप्त प्रदेश को सिकोड़े और फैलाएं।
कुण्डलिनी का कूर्च बीज “हूँ” का जप करते हुए जगाना चाहिए। “हंस” जप करते हुए उठाना चाहिए और ‘सोअ्ंह’ का जाप करते हुए नीचे उतारना चाहिए। मूलाधार मे कामवायु रुपी अपान वायु ऊपर उठाते समय बायी दिशा की ओर प्रेरित किया जाता है।

विधि 1( प्राण की अपान मे आहुति) :-
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प्राण वायु की अपान मे आहुति देने के लिए उसको नीचे उतारकर मूलाधार मे ले जाकर अपान मे मिलाना होता है। यह क्रिया पूरक और स्तर कुंभक करने से भी सिद्ध होती है।
साँस को फेफडों मे धीरे धीरे परन्तु दबाव के साथ खींचकर पूरक करना पड़ता है, फिर कंठ का संकुचन करके जालंधर बंध द्वारा वायु को बलपूर्वक नीचे दबाया जाता है। इस क्रिया के कुछ अभ्यास के बाद प्राण शक्ति ऊपर के भाग की सब नाड़ियों मे खींचकर नीचे की ओर उतरने लगती हैं, और धीरे धीरे कन्द के पास मूलाधार चक्र मे एकत्रित होती है, वहां पर साधक ने पहले ही सिद्धासन तथा गुदा के संकुचन के द्वारा अपान शक्ति को रोका ही हुआ होता है, इस प्रकार दोनों का योग किया जाता है।यही प्राण की अपान मे आहुति है।

विधि 2(अपान की प्राण मे आहुति) :-
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तत्पश्चात रेचक द्वारा धीरे धीरे प्रश्वास को निकाला जाता है और मूलबंध और पेट को पीठ की ओर खींचकर (उड्डयन बंध लगाकर) प्राण से अपान को मिलाया जाता है। इस प्रकार दोनों का फिर योग होता है। यह अपान का प्राण मे आहूति देना है। उक्त दोनों का योग करके प्राण का सुषुम्ना नाड़ी मे प्रवेश होने से वास्तविक प्राणायाम होता है।

विधि 3(प्राण अपान की गति का निरोध) :-
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तदनन्तर बाहृय कुंभक करके श्वास प्रश्वास की गति रोक दी जाती है, जिससे प्राण और अपान दोनों अपना अपना बाहृय कार्य त्याग कर अन्तर्मुख होने लगते है। यही प्राण अपान की गति का निरोध करना है।

विधि 4( प्राणो की प्राणों मे आहुति) :-
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केवल कुंभक के सिद्ध होने से श्वास प्रश्वास किसी भी अवस्था मे स्वयं रुकने लगते हैं और श्वास की गति का निरोध होने से शक्ति का समस्त व्यापार रुककर प्राण का समष्टि उत्थान होता है, और समाधि सूलगती है। ऐसे साधक मिताहार करके दीर्घकालिक समाधि का आनन्द लेते हैं। यही प्राणो की प्राणों से आहुति देना है।

विधि 5 :-
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बाँये पैर की ऐड़ी से योनि प्रदेश को मजबूती से दबाकर दाहिने पैर को बिल्कुल सीधा और सरल भाव मे सामने रखकर बैठे। उसके पश्चात दाहिने पैर को दोनों हाथों से बलपूर्वक दबाए रखें और कंठ मे ठुड्डी लगाकर कुंभक से वायु रोके,पीछे प्राणायाम की चाल से धीरे धीरे उस वायु को निकाल दें। इस क्रिया के अभ्यास से भी कुण्डलिनी शक्ति शीध्र जाग्रत होकर सीधा आकार धारण कर लेती है। जिनको मूलबंध साधने मे कठिनाई प्रतीत होती है, वे आज्ञा चक्र अथवा सहस्रार मे ही विधिपूर्वक ध्यान लगाकर अपनी कुण्डलिनी जाग्रत कर सकते है।

विधि 6 :-
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सिद्धासन या पदमासन मे बैठकर प्रश्वास गति को रोके बिना केवल रेचक-पूरक करते हुए मूलाधार, आज्ञा चक्र,ब्रह्मरंध्र आदि किसी भी चक्र पर अथवा नासिकाग्र भाग पर या नाभि पर ध्यान जमाकर ऐसी भावना करते हुए कि ऊँ अथवा ‘सो’ से उसी विशेष स्थान पर श्वास आ रहा है और ‘अम’ अथवा’अहम्’ से छूट रहा है, ऊँ अथवा सोहम् का मानसिक जप करें। इस अभ्यास मे विशेष आवश्यकता इस बात की है कि अपने नियत स्थान अथवा चक्र पर श्वास प्रश्वास की गति पर इस भावना से ध्यान दें।
अगर उपर्युक्त रीति से जप करने मे कठिनाई प्रतीत हो तो विशेष स्थान पर ( चक्र पर ) केवल “ऊँ” अथवा “सोहं” का मानसिक जप करें अथवा ऐसी भावना करें कि वहां”ऊँ” अथवा “सोहं” का जप हो रहा हो। या ऊँ अथवा सोहं को सुन रहे हो, मुख्य बात यह है कि उस विशेष स्थान पर आपका मन ठहरा रहे। जिस विशेष स्थान पर आपका मन स्वतः ही रुक जाए,वहीं उपर्युक्त विधि से जप और ध्यान करें। इसका निरंतर अभ्यास करने से श्वास प्रश्वास की गति का स्वयं निरोध हो जाता है और कालांतर में धीरे धीरे कुण्डलिनी शक्ति स्वयं जाग्रत हो सुषुम्ना विविर मे चढ़ जाती है। पहले खुले नेत्रों से साधन करो,जब थक जाओ तब नेत्र बंद कर अन्तर
ध्यान से साधना करो। अगर आप मणिपुर चक्र का ध्यान करते है, तो उसके पश्चात अनाहत चक्र और विशुद्ध चक्र पर ध्यान लगाना नहीं भूलें।
[ ऊँ अथवा ‘सो’ से श्वास लेकर] जितने समय तक शान्ति पूर्वक आराम से रोक सकें, श्वास को रोके रहें(बल पूर्वक नहीं रोके) उसके पश्चात ‘अम’ या “अहम” को छोड़ दें। क्रमशः कुंभक का समय अभ्यास से बढ़ाते रहे। इसका अभ्यास नासिकाग्र भाग, भृकुटी ब्रह्मरंध्र आदि स्थानों पर गुरु आज्ञा से करें।

विधि 7 :-
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ऊँ गुरु ऊँ मानसिक जप करते हुये भूमध्य पर ध्यान लगाने से भी कालांतर मे गुरु कृपा से चित्त निरोध होकर ध्यान लग जाता है, कुण्डलिनी भी जाग्रत हो जाती है।
चक्र चौकोर है, उसमें कमल की चार पंखुड़ियां हैं( लं बीज है लेकिन ‘लं’ का ध्यान करना आवश्यक नहीं है ) गणेश जी बैठे है( जिधर साधक की पीठ है उधर ही उनकी पीठ है ) उनकी लम्बी सूड़ है और उनका पेट आगे बढ़ा है, पंखुडियां सुनहरी आभा लिए है।
बस ध्यान में आँखें बंद कर बैठ जाओं और उपर्युक्त मूलाधार का ध्यान करो और साथ ही साथ गणेश जी की सूड़ से “सो” का मानसिक रुप से उच्चारण करते हुये साँस खींचों, फिर “अहम” कहते हुए श्वास त्याग दो। फिर वहीं से ‘अहम’ कहते हुये श्वास खीचों और सः कहते हुये श्वास छोड़ो। इस प्रकार स्वयं कुण्डलिनी जाग्रतहो जायेगी। चक्र ध्यान में स्पष्ट होगा।

विधि 8 :-
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भूत शुद्धि करने के पश्चात, किसी भी सुखासन मे बैठकर ब्रह्मरंध्र मे गुरु का ध्यान कर उनको प्रणाम कर फिर अपने इष्ट मंत्र के आगे पीछे “ई” बीज लगाकर हृदय मे सात बार जप करे।ऐसा करते हुये अपने शरीर को काम कला (षटकोण) के रूप मे भावना करें। तदुपरांत धीरे से दीर्घ श्वास खींचते हुए अपानवायु को अधिक से अधिक ऊपर खींचे और दृढ़ मूलबंध लगा ले ( ताकि अपान वायु नीचे वापस नहीं जाए ) और तदनन्तर जालंधर बंध लगाकर भावना करोकि प्राण वायु नीचे उतरकर अपान वायु से मिल रही है और इन दोनों के मिलन से ‘हूँ’ की ध्वनि हो रही है तथा सक्षस्रार मे गूँज रहीं हैं। इसे सहस्रार मे सुनने का प्रयास करें।
साथ साथ मानसिक भावना करें कि विद्युत किरण जैसी कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार मे स्वयं लिंग से लिपटी हुई है तथा ‘सो’ मंत्र से श्वास भीतर खींचते हुए मूलाधार सुषुम्ना पथ मे विद्युत किरण की तरह ऊपर जाते हुए अंत मे सहस्रार मे परम शिव से लिपटकर एकाकार होते देखो,फिर”अहं” मंत्र से श्वास छोड़ते समय कुण्डलिनी रुप विद्युत किरण को सहस्रार से उतरकर सुषुम्ना पथ से होते हुए सभी चक्रों को भेदते हुए देखें।

विधि 9 :-
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श्री दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक श्लोक का नियमित रुप से पाठ करते रहने से कालांतर मे माँ जगदम्बा की कृपा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है। मंत्र जपे साधक के रोम रोम से स्वतः होने लगता है।
केवल तंत्र मे वासना रहित मैथुन की योजना की गई है, तंत्र मे सिद्धि की योजना है। वीर भाव में साक्षात स्त्री के साथ विस्तृत पूजन के पश्चात मैथुन की योजना है। जिसके द्वारा साधक उर्ध्वरेता बनने की साधना करता है। दिव्य भाव में कामकला,ध्यान और मानसिक मैथुन की योजना है।यह सब वासना रहित भावना के अनुसार किया जाता है। वैष्णव मे श्रंगार साधन द्वारा उर्ध्वरेता बनने की साधना प्रचलित है।
उर्ध्वरेता होने के लिए प्राणों का सुषुम्ना विवर मे प्रविष्ट होने से ही मंत्र चैतन्य होता है और प्राणो का सुषुम्ना मे संचार होना ही कुण्डलिनी जागरण है। कुण्डलिनी साधना में ३से १२ वर्ष का समय लगता है।

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