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भगवान श्रीकृष्ण इस धरा पर १२५ वर्ष ०७ माह ०९ दिन तक रहे :-
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भगवान श्रीकृष्ण छठे स्थान में लग्नेश शुक्र होने से बालारिष्ट योग था। अतः बचपन में ही पूतना, बकासुर, धेनकासुर, जैसे बड़े बड़े कंस के भेजे हुए राक्षसों ने इनकी हत्या करने का प्रयास किया। लग्नेश छठे स्थान में होने के कारण सारी उम्र तक संघर्ष करना पड़ा। परन्तु उच्च का शनि छठे होने के कारण यह बड़ें बड़ें शत्रुओं को परास्त करते रहे। चन्द्रमा शनि के नवांश में होने के कारण इनका श्याम वर्ण था,परन्तु चन्द्रमा उच्च का होकर लग्न में था,इसलिए इनका रुप मनमोहक था और इसलिए लोग मोहन कहने लगे।
पाँचवे भाव में स्वक्षेत्री राहु है और मन का स्वामी चन्द्रमा शनि के नवांश में है।अतः वे भगवान श्रीराम की तरह से परम्परावादी नहीं थे और गलत परम्पराओं का विरोध बचपन से करते रहे। बचपन मे इन्द्र की पूजा बन्द कराकर गोवर्धन पर्वत की पूजा आरम्भ करवाई और आवश्यकता होने पर रणछोड़दास कहलाने में भी इन्होंने कोई संकोच नहीं किया।
तृतीयेश चन्द्रमा उच्च का होकर लग्न में है परन्तु उस पर किसी ग्रह की दृष्टि नहीं है। अतः चन्द्रमा की दशा मे बुध का अंतर में ये पुनः बैकुंठ पधार गये। लग्नेश शुक्र और अष्टमेश गुरु दोनों चर राशि में हैं अतः दीर्घायु ( १२५ वर्ष ०७ माह ०९दिन ) तक इस मृत्यलोक मे रहे।
चन्द्र, मंगल,बुध, गुरु, और शनि पाँच ग्रह उच्च के हैं।और सूर्य, शुक्र, राहु और केतु चार ग्रह स्वग्रही हैं।अतः यह भगवान विष्णु के १६ कला के अवतार होकर भगवान श्रीराम से भी अधिक प्रभावशाली हुए। इन्होंने जीवन के सभी सुख भोगे और जीवन को पूरा जिया।
मोहना रुप था,पूरा शौर्य था,पूरे पराक्रम थे, पूरा वैभव था,महाभारत के महानायक थे,किसी प्रकार का बंधन इन्होंने नहीं पाया, भरा-पूरा रणिवास था किसी प्रकार का कुछ दोष नहीं था। जिसको चाहा युद्ध मे जिताया और चक्रवर्ती सम्राट बनाया परंतु स्वयं सम्राट नहीं बन पाये। इनके सांसारिक जीवन के अन्त समय तक इनके बड़े भाई बलराम, पिता वासुदेव र नाना उग्रसेन जीवित थे इसलिए ये यद्यपि मथुराधीश, द्वारिकाधीश, और गोकुलेश्वर कहलाये परन्तु सम्राट नहीं बन पाये।
श्री कृष्ण सम्राट क्यों नहीं बन पाये?
इनके सूर्य चन्द्रमा को छोड़कर सारे ग्रह केन्द्रों से बाहर हैं। अतः न रुचक योग है, न शश योग है, न भद्र योग है,न मालव्य योग है और न ही हंस योग है। इनके जन्म चक्र मे गजकेशरी योग भी नहीं है। चतुर्थेश से राजयोग बने बिना सिंहासन प्राप्त नहीं होता। इनके चतुर्थेश सूर्य स्वग्रही अवश्य है, परन्तु इस सूर्य का किसी अन्य केन्द्र या त्रिकोणपति से संबंध नहीं है। अतः इन्हें राजसिंहासन प्राप्त नहीं हुआ, यद्यपि धर्मराज के राजसूर्य यज्ञ में इनको अग्रज मानकर पूजा गया।
तृतीयेश उच्च का होने और तीसरे घर में उच्च का गुरु होने के कारण ये महान उपदेशक थे।
इनके द्वारा दिया गया गीता का ज्ञान आज भी सर्वोच्च दार्शनिक ज्ञान है।
१- ग्रहों की गति से कोई भी जीवधारी नहीं बच सकता चाहे वह स्वयं पुरुषोत्तम ही हों।
२- ज्योतिष विश्वसनीय विज्ञान है। भगवान श्री राम और भगवान श्रीकृष्ण की लीलायें भी उनके जन्म कुण्डली के अनुसार ही रहीं।
जो देश खुद को विकसित या विकासशील या प्रगतिशील मानते हैं, उनसे अधिक खगोल ज्ञान इस देश के ऋषि-मुनियों को लाखों वर्ष पहले ही प्राप था। वेद और वेदांगों के इस ज्ञान का पुनः अध्ययन करना अत्यंत आवश्यक है।