April 29, 2019

संतान हीन दम्पत्ति , संतान प्राप्त करें ।

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संतान प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि विधि ( यज्ञ )
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संतान हीन दम्पत्ति को निराश होने की जरूरत नहीं है । अगर किसी शाप से सुतक्षय योग है तो, सन्दर्भित ग्रह की शांति करवा कर, और यदि संतान हीन होने पर पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा संतान प्राप्त की जा सकती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं भगवान श्रीराम जी है जिन्हें राजा दशरथजी ने श्रृंगी ऋषि से शुभ पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त किया था।

एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं।
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि विनय बिसाला ।।
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बशिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ।
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ।।
सृंगी रिषिहि बशिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ।
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरु कर लीन्हें ।।
( रामचरितमानस बालकाण्ड )
।। अथ पुत्रेष्टि विधिः ।।
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ऋतु काल के अनन्तर , मंगलपूर्वक आगे जो विधि कहते हैं उसको करे। जैसा कि ,अथर्ववेद वेद का जानने वाला पुरोहित पुत्र के निमित्त विधि पूर्वक इष्टी(यज्ञ) करे, विधिपूर्वक कहने का यह प्रयोजन है कि ,जिस प्रकार वेद में लिखा है उसी प्रकार करे न्यूनाधिक न करे।
तहां आचार्य रजोदर्शन से १६ दिन रात्रि ऋतुसंबंधी होते हैं, इन्में चार रात्रि को त्याग कर शुभ दिन,घड़ी, मुहूर्त, नक्षत्र,और शुभ वार में पुत्रेष्ठी करावे। पुत्रेष्टी कर्त्ता, प्रातःकाल स्नानादि कर्म करके तथा पत्नी भी नवीन उदक से स्नान कर मंगलीक वस्त्र भूषणों को धारण कर स्वस्तिवाचन अभ्युदयिक कर्म करके, फिर संकल्प करावे ” श्रीपरमेश्र्वरप्रीत्यर्थे पुत्रेष्टि च करिष्ये ” तहां ब्राह्मण के योग्य नवीन वस्त्र से आच्छादित बैल के चर्म का आसन, राजा योग्य व्याध्र अथवा बैल के चर्म का आसन, वैश्य को रुरु बकरा के चर्म का आसन है, उस पर स्थित हो, चौकोन वेदी को लीप कुशा से रेखा कर उस पर कुशा बिछावें। पीछे पीले बाँस का स्तम्ब को खड़ा करें, और वेदी के दक्षिण में ब्रह्मा को स्थापित करें। सफेद फूल चंदन,बलिदान आदि से पूजन करें। पीछे वेदी के पंचभूसंस्कार करके, अग्नि स्थापन करें। ढाक की समिधा से अग्नि को प्रज्वलित करें, मंत्रित जल के पूत्रपात्र को अग्नि के आगे स्थापन करे,तदनंतर पुत्रजन्म के लिए प्रशंसनीय घृत को ओं भूर्भुवः स्वः इत्यादि महा व्याहृतियों से हवन करे, उसी प्रकार स्त्री भी पुत्र की इच्छा से पति के साथ अग्नि के पश्चिम में बैठे, और ऋत्विज अग्नि के दक्षिण में बैठे, पीछे उस स्त्री को ब्राह्मण प्रजापति के उद्देश्य से वांछित कामना के अर्थ मन करके कुंड में काम्यइष्टि को इन मंत्र से हवन करावे ।

” अनयोर्विष्णुर्योनिंकल्पयतु त्वष्टारुपाणिपिंशतु, आसिन्चतुप्रजापतिर्धातागर्भेदधातुतेस्वाहा ।। ओंगर्भेधेहिसिनीवालिगर्भैधेहिसरस्वति, गर्भैतेअश्र्विनौदेवावाधत्तांपुष्करस्रजास्वाहा।।”

तदनंतर चरु और घृत मिलाय कर ब्रह्मा, विष्णु के नाम से प्रधानाज्यहोम करे। इस प्रकार ७-७ आहुती देवे। पीछे सब ब्राह्मण पूर्वोक्त पूर्णपात्रका जल लेके दोनों स्त्री पुरुषों का ” अपनः शोशुचेति ” इन मंत्रो से मूर्धाभिषेक करे। पीछे अग्नि का और सूर्य का उपस्थान करना चाहिए, तदनंतर अपने कुलरीत्यनुसार उदकपात्र इस पुरुष को देवे। ” सर्वानुदकार्थान्कुरुष्वेति ” इस प्रकार कर्म की समाप्ति में प्रथम दक्षिण पैर को धरती हुई तीव्र ज्वाला वाली अग्नि की परिक्रमा करें, पींछे ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन पढा़य और ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा से प्रसन्न कर आशीर्वाद लेवे। तदनंतर घृत और चरु शेष को पति के साथ प्रथम पुरुष और पीछे स्त्रीं भोजन करे। उच्छिष्ट बाकी न छोड़नी चाहिए। इस प्रकार पुत्रेष्टी यज्ञ करें।

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