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प्रसन्नता :-
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संसार में भ्रमित मन ,भावना युक्त मन पहले शांत होता है, फिर एक सूत्रीय अवस्था जिसे बुद्धि कहते है मे परिवर्तित होता, और उसके बाद आत्म चेतना में प्रतिष्ठित होता है। क्योंकि
” नास्ति वृद्धि युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्ति शान्तस्य कुतः सुखम्।।”
अर्थात जो व्यक्ति आत्म प्रतिष्ठित नहीं है, उसके न तो बुद्धि होती है न और भावना। भावना विहीन विहीन व्यक्ति के जीवन मे शान्ति नहीं होती, और जो शान्त नहीं है वह सुखी कैसे हो सकता है।
यदि मन अधिक स्थिर है तो वह अधिक प्रसन्नता अनुभव करने की बेहतर स्थिति मे है। जैसे पानी की शान्त सतह पर सूर्य की छाया अधिक स्पष्ट होती है।उसी प्रकार शान्त मन पर परम तत्व के सर्वव्यापी आनन्द की छाया पड़ती है।
मन जैसे जैसे शान्त होता जाता है, चय अपचय की क्रिया साथ साथ कम होतीं है। जब सम्पूर्ण तंत्रिका तंत्र समग्र शान्ति की स्थिति में आ जाता है, तब वह परम चेतना का रुप हो जाता है और परम आनंद यहां पहले से ही है।
प्रश्न उठता है यदि मन सुख की खोज मे भटकता है तो क्या यह नही कहा जा सकता कि जब तक प्रसन्नता नही तब तक शान्ति कैसे?
यह सत्य नहीं है, क्योंकि प्रसन्नता का अनुभव तो केवल मन की स्थिरता पर निर्भर करता है। यदि मन अधिक स्थिर और शान्त है तो प्रसन्नता या सुख का अनुभव भी अधिक होगा। ( हमारे गुरुदेव )