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प्रश्न ४- समदर्शी किसे कहते हैं ?
उत्तर :- समदर्शी उसे कहते है, जो ठीक ठीक देखता है, जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही देखने वाला समदर्शी कहलाता है।
वस्तु के स्वरूप में और उसकी दृष्टि में कोई भेद नहीं आने पाता अपितु सर्वथा समत्व या सामन्जस्य रहता है।उसकी दृष्टि में पदार्थ का यथार्थ अनुभव होता है। अर्थात उसे भ्रम नही होने पाता, संसार मिथ्या है, तो वह उसमे सत्य का आरोप नही करता।
ब्रह्म सत्य है तो उसे सत्य ही मानता है, संसार का मिथ्यातत्व और आत्मा का नित्यत्व जब मनुष्य को पुष्ट हो जाता है तब वह समदर्शी हो जाता है। और तब वह समस्त पदार्थों को उनके वास्तविक रुप मे देखता है।
संसार के मिथ्यातत्व का अर्थ है, परिवर्तन होने के कारण उसकी क्षण भंगुरता। सभी को प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ नश्वर है, वियोगान्त है। सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल सभी वस्तुएं परिवर्तन शील है। प्रत्येक जीव प्रत्यक्ष देखता है कि उसके सामने कितने ही जीव उत्पन्न होकर नष्ट होते रहते है, सभी को यह विदित है कि मेरे पूर्वज नहीं रहे और एक दिन मै भी नही रहूंगा, यही संसार की क्षणभंगुरता है, परन्तु फिर भी विचार नहीं करता।
जिस मनुष्य की समस्त लौकिक प्रपंच की क्षणभंगुरता पुष्ट हो गई, उसे किसी वस्तु का लोभ मोह नहीं हो सकता, वह जानता है कि जिसका लोभ और मोह आज करेंगे कल उसका स्वयं का परिवर्तन हो जाना है। इसलिए व्यर्थ लोभ-मोह करके उसके परिणाम मे पश्चाताप और अशांति ही हाथ लगेगी, अतः उसके अन्तःकरण मे लोभ और मोह अंकुरित ही नही होते। उनका बीज ही नष्ट हो जाता है। लोभ-मोह निर्बीज हो जाने से मात्सर भी निर्मल हो जाता है और वह किसी से भी मत्सर नही करता। किसी लौकिक वैभव धन पुत्र विद्या आदि का उसे मद भी नहीं हो सकता। लोभ मोह मद मत्सर न रहने से उसमें क्रोध स्वभावतः निर्मूल हो जाता है।ऐसे मनुष्य की कामनाएं संकुचित होकर भगवत्परायण हो जाती है, उसका व्यवहार स्वाभाविक भी शास्त्रोक्त होता है और उसका जीवन संसार में कमलपत्र की भांति असंग और निर्मल रहता है।