
अमुक व्यक्ति बहुत धर्मात्मा है, किन्तु उसको तो अभाव ही अभाव है तथा दुःख ही भोगना पड़ रहा है । अथवा अमुक व्यक्ति धर्माधर्म की कोई चिंता नहीं करता, वह झूठ ,छल ,कपट, विश्वासघात आदि ही करता है किन्तु कितना सम्पन्न और सुखी है। अक्सर लोग ऐसा कहते है और संतुष्टकर उत्तर चाहते है ।
धर्म का फल दुःख और पाप का फल सुख कभी हो नही सकता है। पाप का फल सुख होता, तो पाप करनेवाले सब धनी सुखी होते, किन्तु उनमें तो अत्यंत दरिद्र रोगी और दुःखी ही देखे जाते हैं।
इसको ऐसे समझे :-
एक किसान ने पिछले वर्ष खेती नहीं की।इस वर्ष खेतों में जी तोड़ परिश्रम करता है, किन्तु पुराना अन्न घर मे रहा नहीं, फलतः उसे और उसके परिवार को प्रायः भूखों रहना पड़ता है ।
दूसरे किसान ने पिछले वर्ष बहुत परिश्रम खेतों मे किया था,इस वर्ष उसनें हल बैल को छुट्टी दे रखी है, दिन रात घर में पड़ा रहता है, घर मे पिछले वर्ष का अन्न भरा है सो स्वयं खाता है, दूसरों को देता है। मित्रों अब आपका क्या कहना है ?
आपकी सेवा मे लगातार…………….