February 22, 2019

कर्मफल -भाग 42

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कर्मफल -भाग 42
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ब्राह्मादि तृणपिपीलिकान्त जीव सृष्टि; लता, गुल्म,गिरि,नदी आदि स्थावर सृष्टि सदा जीवों के कर्मानुसार हुआ ही करती है। इस सृष्टि को अनादि माना है। यह युगों के अनुसार अपने नियम से चलती है; वेद मे ” धाता यथापूर्वमकल्पयत ” यह वाक्य ही इस बात की पुष्टि करता है कि, एक प्रलय के पीछे जब सृष्टि होती है तो पहले के अनुसार ही पान्चभौतिक सृष्टि होती है। ( ऋग्वेद मे 10.190.3 )
इसका मतलब एक निश्चित समय अंतराल बाद सारी की सारी घटनाएं उसी रुप मे पुनः दृष्टि गोचर होती है, सिर्फ़ पात्रों के नाम बदल जाते है, गीता में कहा है ” प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । “( गीता 9.8 )

नक्षत्रो के प्रभावो की यह उपयुक्त व्यवस्था मनुष्य की इच्छा की सृष्टि नहीं है, वरन भगवान, के उच्च स्तरीय प्रबंध के माध्यम से रची गयी व्यवस्था है, असल मे ऐसा प्रबंध जीव के अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार किया जाता है। ( श्रीमद्भागवत 1.12.12 )
इसी बात को कह गये हैं ” कर्मानुबन्धीनि मनुष्य लोके ”
सब जीव अपने अपने कर्मो के अनुसार संसार में जन्म ग्रहण करते है, इसमें कुछ भी संदेह या संशय नहीं है।
अनादि और अनन्त कर्म होने से यह संसार सदा हुआ ही करता है। भगवान शंकराचार्य जी ने इससे कहा है ― ” पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ” इत्यादि। यह प्रत्यक्ष भी देखा जाता है कि, एक ही समय मे राजा तथा रंक के पुत्र उत्पन्न होते है। उनमें राजा अनेक सुखों को भोगता है, रंक दुःख सहने कोही उत्पन्न होता है।
विद्वान, मूर्ख, सती,कुलटा,दयालु, क्रूर इत्यादि एक ही समय मे जन्म लेने वाले अपने अपने कर्मो के अनुसार भिन्न भिन्न स्वभाव वाले होते हैं। अतः आपको कर्मो की प्रधानता स्वीकार करनी पड़ती हैं।शुरुआत में आपने पढ़ा की सारी की सारी सृष्टि ठीक वैसी ही होती है सिर्फ नाम बदल जाते हैं जैसे ब्रम्ह लोक के जय विजय सतयुग में हिरंयाक्ष और हिरण्यकशिपु ,त्रेता मे रावण और कुंभकर्ण बने ,यही द्वापर मे कंश और शिशुपाल बने। संहृद अगले जन्म में प्रहृलाद बने। रामावतार की कैकेयी-दासी मन्थरा ही द्वापर कृष्ण प्रिया ( कंस-सैरन्ध्री) कुब्जा हुई। अश्वासिरा अगले जन्म में काकभुशुण्डिजी हुऐ। मन्थरा ही पूतना हुई।द्वापर युग के यधिष्ठिर ,कलयुग मे मलखान, अर्जुन कलियुग मे ब्राह्मानंद, धृतराष्ट्र कलियुग में पृथ्वीराज और द्रौपदी कलियुग में वेला के रुप मे जन्म हुआ। तारकासुर, वाणासुर हर युग हर जन्म में विष्णु अवतारों से लड़े। अर्थात एक निश्चित अंतराल बाद सारी की सारी घटनाएं उसी रुप मे पुनः। अतः सिर्फ़ एक को जान लो ,कहा भी गया है- ” एक ही साधे सब सधे,सब साधे सब जाहि “
जैसे ज्यादा परेशान होकर आदमी झल्लाहट मे कहता है कि न जाने किस नक्षत्र मे पैदा हुआ है जो ये समस्याएं उठानी पड़ रही हैं।
गुस्सा ही मे सही वह नक्षत्रों का प्रभाव महसूस करता है।
जैसे कर्मविपाक संहिता  मे उल्लेख है कि जो अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण मे जन्म होय तो वह पूर्वजन्म मे मध्य प्रदेश मे ब्राह्मण के घर जन्मा था। तो इस जन्म मे ब्राह्मण के कुछ गुण निश्चित ही दिखेंगे।
इसी प्रकार दूसरे चरण मे जन्म लेना वाला जीव उत्तर प्रदेश में आयोध्यापुरी मेबसने वाला निस्संतान क्षत्री था।आदि आदि सत्य है इसमें झूठ नहीं है।
” अश्विन्याः प्रथम पादे यदा जन्म प्रजायते। तदा ब्राह्मण वर्णोहम मध्यदेशसमुद्भवः।
द्वितीय चरणे देवि पुरा क्षत्री न चान्यथा। अयोध्या पुरतः पूर्वं पुत्रकन्याविवर्जितः ।। ”
लगातार……………….

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