754 total views, 5 views today

परमपद क्या है ?
*******************
१- बीज ऊँ कार है, उसके परे बिन्दु है और उसके ऊपर स्थित नाद है। शब्द के साथ अक्षर नाद के क्षीण होने पर शब्द शून्य अवस्था का नाम परमपद है।
२- अनाहत शब्द की जो विशेष ध्वनि होती है, उस ध्वनि के अन्तर्गत जो ज्योति है और उस ज्योति के अन्तर्गत जो मन होता है, वह मन जहां विलय को प्राप्त होता है वह स्थान ही परमपद है।
३- विषयों के भोग की अभिलाषा निरस्त हो जाने पर मन को हृदय मे पूर्णतः निरुद्ध करने पर जब मन उन्मनी भाव को प्राप्त होता है तब उस अवस्था को परमपद कहते है।
४- भक्त सगुण मन्त्र जप करता है, सगुण साक्षात्कार के बाद मन्त्र लय हो जाता है, ऊँकार की प्राप्ति होती है। सुषुम्ना मे नादात्मक ऊँकार अबाध गति से क्रीडा उस नाद को सुनते सुनते आकाश उपस्थित होता है वही परमपद है।
५- परमाकाश परव्योम को ध्यान के समय जो आकाश उपस्थित होता है, उस आकाश को ही परमपद कहते है।उसे आँखों से नहीं देखा जाता, आँखें मूंदकर ज्ञाननेत्र से उसे देखना पड़ता है।
६- ” यद वै तद् ब्रह्मेतीदं वाव तद यो^यं बर्ध्धा
पुरुषादाकाशो यो वै सः।” ( छान्दोग्य 3/12/7 )
जो ब्रह्म रुप है वही देह के बाहर विद्यमान आकाश है, देह के बाहर जो आकाश है, वही आकाश शरीर के भीतर है, देह के भीतर जो आकाश है वही आकाश हृदयकमल के भीतर है।
यही हृदयाकाश नामक पूर्णब्रह्म है।