
” भगवान का निवास स्थान हृदय “
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श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के श्लोक संख्या २० के अनुसार―
” अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिच्श्र मध्यं च भूतानामन्त एव च ।। “
अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि,मध्य और अन्त भी मैं ही हूं, अर्थात जन्म, मृत्यु और जीवन भी मैं ही हूँ। अतः समग्र दृश्य जगत की आत्मा हैं। वे प्रधान महत्तत्व की आत्मा हैं।
इस सृष्टि का कारण महत्तत्व नहीं होता,वास्तव मे महाविष्णु सम्पूर्ण भौतिक शक्ति या महत्तत्व में प्रवेश करते हैं। वे आत्मा हैं। जब महाविष्णु इन प्रकटीभूत ब्रह्माण्डो मे प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक जीव मे पुनः परमात्मा के रुप में प्रकट होते हैं।
हमें ज्ञात हैं कि जीव का शरीर आत्मा के स्फुलिंग की उपस्थित के कारण विद्यमान रहता है। बिना आध्यात्मिक स्फुलिंग के शरीर विकसित नहीं हो सकता।
छान्दोग्य उपनिषद मे कहा गया है- ” सर्वं खलु इदं ब्रह्म ” । This universe emerging from a spark of my sharpness.
यह ब्रह्मांड मेरे तेज के एक स्फुलिंग से उदभूत है।
१- अंश के अंश ― इन्द्र की आज्ञा मानने वाले मरीचि सप्त ऋषि आदि।
२- अंशावतार ― ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।
३- ब्रह्मा के अंश ― इन्द्र ।
४- कलावतार ― कपिल, और कूर्म अवतार आदि
५- आवेशावतार – परशुराम ।
६- पूर्ण अवतार ― नृसिंह, राम,हरि, यज्ञ,नारायण
७- परिपूर्णतम अवतार – भगवान श्रीकृष्ण।
हृदय में निवास के सम्बंध में –
” अस प्रभु हृदय अछत अविकारी ” मानस ०१/२२/०७
जाके हृदय भगति जसि प्रीती।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहि रीती।। मानस १/१८४/३
हृदय विचारत जात हर, केहि बिधि दरसनु होई।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु, गएँ जान सबु कोई।।
सब के उत अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित,होई सो कहिअ उपाउ।।
जीव हृदय तम मोह विसेषी।
ग्रँथि छूट किमि परइ न देखी।।
नित पूजत प्रभु पाँवरी,प्रीति न हृदय समीप।।
हृदय मे निवास का और एक उदाहरण-
तन मन वचन मोर मनु साचा।
रघुपति पद सरोज चितु राजा।।
तौ भगवान सकल उर वासी।
करिहि मोहि रघुवीर कै दासी।। मानस १/२५०/५
अंत मे कठोपनिषद २/३/१७ से
” अंगुष्ठमात्रः पुरुषोअ्न्तरात्मा सदा जनानां हृदयेसन्निविष्टः । “
अतः सम्पूर्ण हृदय से समर्पित हो जाओ।
सम्पूर्ण भावों से जाओ ।
अरुपम् शब्द निराकार नहीं यह दिव्य सच्चिदानन्द का सूचक है।
देखना हो तो भगवान कहते हैं कि मैं –
वृक्षों में- अश्र्वत्थ हूं।
पर्वतों मे – मेरु हूं।
मछलियों मे – मगर हूं।
नदियों में – गंगा हूं।
गायो मे – सुरभि हूं।
पशुओं में – सिंह हूं।
आदित्यो मे – विष्णु हूं।
प्रकाशो मे – सूर्य हूं।
मरुतों मे – मरीचि हूं।
नक्षत्रो मे – चन्द्रमा हूं।
वेदो मे – सामवेद हूं।
देवताओं में – इन्द्र हूं।
इन्द्रियों मे – मन हूं।
जीवो मे – चेतना हूं।
रुद्रों मे – शिव हूं।
राक्षसों मे – कुबेर हूं।
वसुओं मे -अग्नि हूं।
पुरोहितों मे – वृहस्पति हूं।
सेनानायकों मे -कार्तिकेय हूं।
महर्षि मे – भृगु हूं।
वाणी में – ओमकार हूं।
अचलो मे – हिमालय हूं।
देवर्षियो मे – नारद हूं।
गजो मे – ऐरावत हूं।
घोडों मे – उच्चैःश्रवा हूं।
मनुष्यों में – राजा हूं।
हथियारों मे -वज्र हूं।
सर्पों मे – वासुकि हूं।
नागों मे -अनन्त हूं।
जलचरों मे -वरुणदेव।
पितरों मे – आर्यमा हूं।
नियमों में – यम हूं।
दैत्यों मे -प्रहलाद हूं।
अक्षर मे – ऊँ ।
आदि आदि।
परमात्मा और उसकी प्राप्ति की एक निर्धारित क्रिया है। अर्जुन की तरह भी पा सकते हो।
व्यक्त या अव्यक्त इन दोनों के आकार और दोनों की कलाएँ समान हैं।
एक बिम्ब है तो दूसरा प्रतिबिंब हैं।
कण कण मे व्याप्त की की धड़कन महसूस करो।
ईश्वर की हृदय मे उपस्थित ही हृदय को धड़काती है। अतः ईश्वर पर अटैक मत करो नहीं तो जीवन खतरे में पड़ जायेगा।
ऐ वही ब्रह्म है जो बिना वायु के श्वासोच्छवास करता है।