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कुण्डलिनी शक्ति – भाग 3
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जीवात्मा मन के द्वारा विषय ज्ञान प्राप्त करती है। मन एक सूक्ष्म शक्ति है, जिसके साथ चैतन्य जुड़ा हुआ है। सभी इन्द्रियां मन के द्वारा संचालित है।
मन इन्द्रियों द्वारा सारा ज्ञान जीवात्मा को देता है। वहां से इन्द्रियों के द्वारा मन सारा ज्ञान चित्त रुपी कुंडलिनी शक्ति, जो कि स्मृति गोदाम है, जहां जन्म जन्मान्तर के संस्कार और वासनाए अंकित है, उनसे प्राप्त करता है।
ईश्वर सृष्टि का अधिष्ठाता है।वह सृष्टि की सारी जड़ और चेतन वस्तुओं पर आधिपत्य रखता है, उनको अपनी इच्छानुसार चलाता है। ईश्वर के सूक्ष्म रूप को ” हिरण्यगर्भ ” कहा जाता है। और स्थूल रुप को “विराट ” अथवा ” वैश्र्वानर ” की संज्ञा दी गई है।
सहस्रार चक्र शुद्ध चैतन्य का निवास स्थान है, यही कुण्डलिनी शक्ति उसके साथ एकाकार होकर सामरस्य भाव मे रहती है। यह अपने ही धरातल पर सारे विश्व को उत्पन्न करती है।यह स्वयं ही विश्व के सभी रुपो को धारण करती है और हम अपने चारों ओर जो सृष्टि देखते है, उसमें वह विभिन्न रुप धारण कर दृष्टि गोचर होती है। वही प्राण बन जाती है, जो प्रधान शक्ति के रूप मे समस्त सृष्टि को जीवित रखती है। इसी को विश्व चेतना या ” चित्ति लौकिक शक्ति ” भी कहते है।कुण्डलिनी के दो रुप कहे जा सकते है, एक तो लौकिक, स्थूल रुप, और आध्यात्मिक ( अन्तर्मुखी, आन्तरिक सूक्ष्म रूप )।
इसका लौकिक ( स्थूल रुप ) कार्यक्रम सही रुप मे चल रहा है, लेकिन आंतरिक सूक्ष्म कार्यक्रम प्रसुप्त अवस्था मे पड़ा है। कुण्डलिनी की आध्यात्मिक आत्मिक अवस्था को साधना के द्वारा जाग्रत करना होता है, कुण्डलिनी का बाहृरुप स्थूल सृष्टि के रुप मे हम सब देख पाते हैं। लेकिन उसका आंतरिक सूक्ष्म प्रसुप्तावस्था का बोध उसकी अति सूक्ष्मता के कारण अनुभवों में नहीं आता है। केवल साधना, ध्यान और अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा ही हम उसे समझ सकते है। अमेरिका के मास्टर डाँ फां जाँन भी यही कहते है कि हमें स्वयं साधना के द्वारा उसके अस्तित्व का अनुभव करना होगा। जब कुण्डलिनी शक्ति अन्तर्मुखी साधना के द्वारा आंतरिक रुप से जाग्रत होती है। तब हमारे शरीर में विभिन्न यौगिक क्रियाए प्रारंभ हो जाती है और अंत मे हमें परमात्मा के साथ मिला देती है।
कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य करने के लिए मंत्र,जप,तप,स्वाध्याय, अनुसंधान मे लीन रहना, ज्ञान योग,कर्मयोग, राजयोग, हठयोग की विभिन्न क्रियाएँ यथा मुद्रा, बंध,शक्ति चालन मुद्रा, प्राणायाम आदि का अभ्यास, सदगुरू शक्तिपात,तंत्र की विशेष क्रियाएं आदि अनेक उपाय है। एकाएक गिर जाने से भी अनायास कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य हो जाती है।
कुंडलिनी साधना प्रारंभ करने से पहले साधक को आसन सिद्धि और नाड़ी शोधन,प्राणायाम के द्वारा नाड़ी शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए, ताकि साधक जाग्रत कुण्डलिनी की प्रचण्ड शक्ति को सहनकर सके,अन्यथा हृदय रोग या अन्य कोई भी रोग हो सकता है, शरीर को हानि पहुंच सकती है।
१- आसन सिद्धि :-
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किसी भी आसन में सुख पूर्वक लगातार तीन घंटे तक बैठ सकते है, तो समझ लीजिए आपको आसन सिद्धि हो गई है।
२- नाड़ी शोधन :-
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पदमासन मे सीधे बैठकर अपने दाये हाथ के अंगूठे से दायां नथुना बंद कर लो,और बांए नथुने से बहुत धीरे धीरे ( बिना किसी प्रकार की ध्वनि किये धागा भी नही हिले ) दीर्घ श्वास खींचो,ताकि फेफड़ों मे अधिक से अधिक वायु भर जाए, तत्पश्चात अनामिका और कनिष्ठिका से बाँया और दायां नथुना बंद करने दांए नथुने से धीरे धीरे बिना झटका दिए छोड़ दें। दो प्राणायाम के मध्य मे किसी भी प्रकार का अवरोध नहीं हो।
स्मरण रहे इस प्राणायाम मे साँस भीतर नहीं रोका जाता है, और न ही बाहर रोकते है अर्थात इसमें बिना कुंभक किए केवल पूरक और रेचक किया जाता है। इस प्राणायाम का छः माह लगातार अभ्यास करने से नाड़ी शोधन हो पाता है। यदि भस्त्रिका प्राणायाम और हृदय स्तंभक प्राणायाम भी करें तो अच्छा रहेगा।
३- अश्विनी मुद्रा :-
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गुदा के स्नायुओं को बारी बारी कसें और ढीला छोड़े। अगर एक ही श्वास मे आप गुदा का संकुचन और शिथिलीकरण कर सकते है तो क्या कहने। इस अभ्यास से सुप्त कुण्डलिनी पर चोट पड़ती है, जिससे वह यथाशीध्र चैतन्य हो जाती है। मूलबंध और उज्जियान बंध का अभ्यास कर लेना चाहिये।
४- भूतसिद्धि शुद्धि :-
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नित्य प्रति सुषुम्ना स्वर चलाकर ज्योतिमंत्र ” ऊँ हौं ” का १०८ बार जप करके भूत शुद्धि हो जायेगी।
1- ऊँ भूत श्रंगाटाच्छिर सुषुम्णपथेन जीव शिवं परमशिव पदे याज्यामि स्वाहा।
2- ऊँ यं लिंग शरीर शोषय शोषय स्वाहा।
3-ऊँ रं संकोच शरीर दह दह स्वाहा।
4- ऊँ परमपिता सुषुम्ना पथेन मूल श्रृगांट मुल्ल सोल्लास ज्वल ज्वल प्रज्वल सो अहं हंसः स्वाहा।
5- कुण्डलिनी का ध्यान :-
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ध्यायेत कुण्डलिनी सूक्ष्मां मूलाधार, निवासिनीम्
तामिष्ठ देवतारुपांसार्द्ध,त्रिवलयान्विताम।।
कोटि सौदा मिनी भासां स्वयंभूलिंग,वेस्टिणीम्।।
6- कुण्डलिनी स्तवन:-
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ऊँ नमस्ते देव देवेशो योगीश प्राण वल्लभे
सिद्धि दे वर दे प्रातः स्वयंभूलिंग वोष्टते।।
प्रसुप्त भुजंगाकारे देवि कारण प्रिये
कामकलाअ्न्वितै!देवि जन्म संसार रुपकात्।।
प्रसारे घोर संसार भव स्वरोगान महेश्वरी।
सर्वदारक्ष मां देवि! जन्म संसार रुपकात्।।
इति कुण्डलिनी स्रोत ध्यात्वा यः प्रपठेत्सुधिः।
स मुक्तः पापेभ्यो जन्म संसार सागरात्।।
7- प्रणाम :-
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इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानन्चासितेषु या।
भूतेषु सततंतस्य व्याप्ति देव्यै नमो नमः।।