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वृहदारण्यक उपनिषद मे वर्णन आया है कि स्वप्नावस्था मे यह जीवात्मा इस लोक और परलोक दोनो को देखता है, वहां दुःख और आनंद दोनों का उपभोग करता है, इस स्थूल शरीर को स्वयं अचेत करके वासनामय नये शरीर की रचना करके जगत को देखता है। उस अवस्था मे सचमुच न होते हुए भी रथ, रथ को ले जाने वाले वाहन और उसके मार्ग की तथा आनंद, मोद,प्रमोद एवं कुण्ड सरोवर और नदियों की रचना कर लेता है, इसलिए सिद्ध होता है कि स्वप्न में भी सांसारिक पदार्थों की रचना होती है।
नहीं जीवात्मा स्वप्न मे वहाँ जिन जिन वस्तुओं की रचना करता है वे वास्तव में नहीं है, स्वप्न में सब वस्तुएं पूर्ण रुप से देखने मे नहीं आती, जो कुछ देखा जाता है, वह अनियमित और अधूरा ही देखा जाता है।
प्रश्नों उपनिषद मे स्पष्ट कहा है कि ” जाग्रत अवस्था मे सुनी हुई, देखी हुई और अनुभव की हुई को और न देखी ,न सुनी हुई को भी देखता है तथा न अनुभव की हुई को भी देखता है, इससे सिद्ध होता है कि स्वप्न की सृष्टि वास्तविक नहीं, जीव को कर्मफल का भोग कराने के लिए भगवान अपनी योगमाया से उसके कर्म संस्कारों की वासना के अनुसार वैसे दृश्य देखने मे उसे लगा देता है।
अतः स्वप्न सृष्टि माया मात्र है। यही कारण है कि उस अवस्था मे किये हुए शुभाशुभ कर्मो का फल जीवात्मा को नहीं भोगना पड़ता, परन्तु स्वप्न सर्वथा व्यर्थ नहीं है ,वह वर्तमान के आगामी परिणाम का सूचक भी होता है।
स्वप्न की घटना जीवात्मा की स्वतंत्र रचना नहीं है, वह तो निमित्त मात्र है; वास्तव में सब कुछ जीव के कर्मानुसार उस परमेश्वर की शक्ति से ही होता है।