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एक दिन की बात है, सन्ध्या के समय पुष्प भद्रा नदी के तट पर मार्कण्डेय मुनि भगवान कि उपासना मे तन्मय थे। उसी समय एकाएक बड़े जोर की आँधी चलने लगी,उस समय आँधी के कारण बड़ी भंयकर आवाजें होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाश मे मड़राने लगे। बिजली चमक चमककर कड़कने लगी और रथ के घुरे के समान जल की मोटी-मोटी धाराएं पृथ्वी पर गिरने लगी,यही नहीं मुनि को चारों ओर से चारों समुद्र समूची पृथ्वी को निगलते हुये उमड़े आ रहे है। आँधी के वेग से समुद्र मे बड़ी बड़ी लहरें उठ रही है, एवं बड़े भंयकर भंवर पड़ रहे है और भयंकर ध्वनि कान फाड़े दे रही है, बड़े बड़े मगरमच्छ उछल रहे हैं।उस समय बाहर भीतर चारो ओर जल ही जल दीखता है, ऐसा जान पड़ता था जल राशि में पृथ्वी ही नहीं स्वर्ग भी डूबा जा रहा है।
इस जल प्रलय मे सारी पृथ्वी डूब गयी चारों प्रकार के प्राणी और स्वयं वे भी अत्यंत व्याकुल हो रहे है, तब मारकण्डेय जी अत्यंत उदास और भयभीत हो गये।
समुद्र ने दीप,वर्ष और पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को डुबा दिया। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ग्रह नक्षत्र एवं तारों और दिशाओं के साथ तीनों लोक जल मे डूब गये, बस उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे,वे भी यहाँ-वहाँ भागकर अपने प्राण बचाने की चेष्टा कर रहे थे उन पर बड़े बड़े मगरमच्छ टूट पड़ते थे एवं लहरों के थपेड़े घायल कर देते और वे बेहोश हो गये, उन्हें पृथ्वी और आकाश का ज्ञान न रहा। वे कभी शोकग्रस्त हो जाते तो कभी मोहग्रस्त, कभी दुःख ही दुःख तो तनिक सुख भी मिल जाता, कभी भयभीत होते, कभी मर जाते, कभी रोग सताने लगते इस प्रकार भटकते भटकते उन्हें सैकड़ो हजारों ही नहीं लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये।
प्रलयकालीन जल मे एक बार उन्होंने पृथ्वी के एक टीले पर एक छोटा सा बरगद का पेड़ देखा, उसमें हरे हरे पत्ते और लालफल शोभायमान हो रहे थे,बरगद के ईशान कोण मे एक डाल थी उसमे एक पत्तों का दोना सा बन गया था,उसी पर एक बड़ा ही सुंदर नन्हा सा शिशु लेटा था उसके शरीर से उज्जवल छटा छिटक रही थी जिससे अन्धेरा दूर हो रहा था। वह शिशु अपने दोनों कर कमलों से एक चरण कमल को मुख मे डालकर चूस रहा था। मारकण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यंत विस्मित हो गये।
यह कौन है यह पूंछने उसके सामने सरक गये, परन्तु शिशु के श्वांस के साथ उसके शरीर के भीतर उसी प्रकार चले गये जैसे कोई मगरमच्छ के पेट मे चला जाता है। पेट मे जाकर उन्होंने सब की सब वहीं सृष्टि देखी,जैसी प्रलय के पहले उन्होंने देखीं थी,अतः आश्चर्य चकित हो गये।
शिशु के उदर मे आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल,पर्वत ,दीप,समुद्र, वर्ष,दिशाएं, देवता, दैत्य, वन देश ,नदियां, नगर गाँव, आहिरों की बस्तियां, आश्रम,वर्ण,उनके अनेक आचार व्यवहार, पंचमहाभूत, भूतों के बने प्राणीयो के शरीर तथा पदार्थ, युग,कल्प सब कुछ देखा। सम्पूर्ण विश्व न होने पर भी वहां सत्य के समान प्रतीत होते देखा।
हिमालय पर्वत,वही पुष्पभद्रा नदी उसके तट पर अपना आश्रम और वहाँ रहने वाले लोगों को मार्कण्डेय जी ने प्रत्यक्ष देखा। इस प्रकार देखते देखते दिव्य शिशु के श्वास से बाहर आ गये और प्रलयकालीन समुद्र में गिर पड़े।अब फिर देखा कि समुद्र के बीच मे पृथ्वी के टीले पर वही बरगद का पेड़ ज्यो का त्यों. विद्यमान हैऔर वहीं शिशु सोया हुआ है और अधरों पर मंद मंद मुस्कान है और प्रेमपूर्ण चितवन से मार्कण्डेय जी की ओर देख रहा है।
अब मार्कण्डेय जी बड़े श्रम और कठिनाई से आगे बढ़े,अभी मुनि उनके पास पहुंच भी नहीं पाये थे कि वे तुरन्त अन्तर्ध्यान हो गये,उस शिशु के अन्तर्ध्यान होते ही वह बरगद का पेड़ तथी प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि मै तो पहले के समान ही अपने आश्रम मे बैठा हूं।
इस प्रकार नारायण की निर्मित योगमाया-वैभल का अनुभव किया।