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माया दर्शन भाग ३( नारद जी को माया के दर्शन)
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नारद जी की बार बार माया को देखने की जिद करने पर नारायण नारद की अँगुली पकड़कर श्र्वेतद्वीप से चले।मार्ग में आकर भगवान ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण कर लिया।शिखा, यज्ञोपवीत, कमण्डलु, मृगचर्म को धारण कर कुशाकी पवित्री हाथों में पहनकर वेद-पाठ करने लगे और अपना नाम उन्होंने यज्ञशर्मा रख लिया। इस प्रकार का रुप धारणकर नारद के साथ जम्बूद्वीप में आये। वे दोनों वेत्रवती नदी के तटपर स्थित विदिशा नामक नगरी में गये। उस विदिशा नगरी में धन-धान्य से समृद्ध ,उद्यमी,गाय, भैंस, बकरी आदि पशु-पालन में तत्पर, कृषि कार्य को भलीभांति करनेवाला सीरभद्र नामका एक वैश्य निवास करता था। वे दोनों सर्वप्रथम उसी के घर गये। उसने इन विशुद्ध ब्राह्मणों का आसन,अर्ध्य आदि से आदर-सत्कार किया। फिर पूछा- ‘ यदि आप उचित समझें तो अपनी रुचि के अनुसार मेरे यहाँ अन्न का भोजन करें।’ यह सुनकर वृद्ध ब्राह्मण रुपधारी भगवान ने हँसकर कहा― ‘तुमको अनेक पुत्र-पौत्र हों और सभी व्यापार एवं खेती में तत्पर रहें। तुम्हारी खेती और पशु धनकी नित्य वृद्धि हो’― यह मेरा आशीर्वाद है।
इतना कहकर वे दोनों वहाँ से आगे गये। मार्ग में गंगा के तट पर वेणिका नामका के गांव में गोस्वामी नाम का एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था, वे दोनों उसके पास पहुंचे। वह खेती की चिंता मे लगा था। भगवान ने उससे कहा―’ हम बहुत दूर से आये हैं, अब हम तुम्हारे अतिथि हैं, हम भूखे है, हमें भोजन कराओं।’ उन दोनों को लेकर वह ब्राह्मण अपने घर पर आया। उसने दोनों को स्नान-भोजन आदि कराया, अनन्तर सुखपूर्वक उत्तम शय्या पर शयन आदि की व्यवस्था की। प्रातः उठकर भगवान ने ब्राह्मण से कहा― ‘हम तुम्हारे घर मे सुखपूर्वक रहे, अब जा रहे हैं।परमेश्वर करें कि तुम्हारी खेती निष्फल हो, तुम्हारी संतति की वृद्धि न हो’ इतना कहकर वे वहां से चले गये।
मार्ग में नारदजी ने पूछा- भगवन!वैश्य ने आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, किंतु उसको आपने उत्तम वर दिया। इस ब्राह्मण ने श्रद्धा से आपकी बहुत सेवा की, किंतु उसको आपने आशीर्वाद के रुप में शाप ही दिया― ऐसा आपने क्यों किया?
भगवान ने कहा-नारद!वर्ष भर मछली पकडऩे से जितना पाप होता है, उतना ही पाप एक दिन हर जोतने से होता है। वह सीरभद्र वैश्य अपने पुत्र-पौत्र के साथ इसी कृषि कार्य में लगा हुआ है, लह नरक मे जायगा, अतः हमने न तो उसके घर में विश्राम किया और न भोजन ही किया।इस ब्राह्मण के घर में भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मण को ऐसा आशीर्वाद दिया कि जिससे यह जगज्जाल म़े ध फँसकर मुक्ति को प्राप्त करें।
इस प्रकार मार्ग में बातचीत करते हुए वे दोनों कान्यकुब्ज देश के समीप पहुंचे। वहाँ उन्होंने एक अतिशय यम्य सरोवर देखा। उस सरोवर की सोभा देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
भगवान ने कहा-नारद!यह उत्तम तीर्थ स्थान है इसमें स्नान करना चाहिए, फिर कन्नौज नाम के नगर में चलेंगे। इतना कहकर भगवान् उस सरोवर मे शीघ्रता से स्नान कर बाहर आ गये।
तदनन्तर नारदजी भी स्नान करने के लिए सरोवर में प्रविष्ट हुए। स्नान सम्पन्न कर जब वे बाहर निकले तो, तब उन्होंने अपने को दिव्य कन्या के रूप में देखा। भगवान अन्तर्धान हो गये। वह स्त्रीभी अपने झुंड से बिछड़ी अकेली हरिणी की तरह भयभीत होकर इधरउधर देखने लगी। इसु समय अपनी सेनाओं के साथ राजा तालध्वज वहाँ आया और उस सुन्दरी को देखकर सोचने लगा कि यह कोई देवस्त्रु है या अप्सरा? फिर बोला’बाले!तुम कौन हो,कहाँ से आयी हो?’
उस कन्या ने कहा’मै माता पिता से रहित और निराश्रय हूँ। मेरा विवाह नहीं हुआ है, अब मैं आपकी ही शरण मे हूं’ इतना सुनते ही प्रसन्न हो राजा उसे घोड़े पर बैठाकर अपनी राजधानी पहुंचा और विधिवत उससे विवाह कर लिया। तेरहवें वर्ष वह गर्भवती हुई। समय पूर्ण होने पर उससे एक तुम्बी(लौकी) उत्पन्न हुई, जिसमें पचास छोटे छोटे दिव्य शरीर वाले युद्ध में कौशल बलशाली बालक थे,उसनें उनको धृतकुण्ड मे छोड़ दिया, कुछ दिन बाद पुत्र और पौत्रों की खूब वृद्धि हो गयीं। वे महान अहंकारी, परस्पर-विरोधी और राज्य सुख की कामना करनेवाले थे। अनन्तर राज्य के लोभ से कौरव और पाण्डवों की भाँति परस्पर युद्ध करके समुद्र की लहरों की भाँति लड़ते हुए वे सभी नष्ट हो गए। वह स्त्री अपने परिवार का इस प्रकार संहार देखकर छाती पीटकर करुणा पूर्वक विलाप करती हुई मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। राजा भी शोक से पीड़ित होने लगा।
इसी समय ब्राह्मण का रुप धारण कर भगवान विष्णु द्विजों के साथ वहाँ आये और राजा रानी को उपदेश देने लगे”यह विष्णु की माया है।तुमलोग व्यर्थ ही रो रहे हो। सम्पूर्ण प्राणियों की अन्त मे यही स्थिति होती हैं। विष्णु माया ही ऐसी है कि उसके द्वारा सैकड़ों चक्रवर्ती और हजारों इन्द्र उसी तरह नष्ट कर दिये गए हैं जैसे दीपक को प्रचण्ड वायु विनष्ट कर देती है। समुद्र को सुखाने के लिए भूमि को पीसकर चूर्ण कर डालने की तथा पर्वत को पीठ पर उठाने की सामर्थ्य रखने वाले पुरुष भी काल के कराल मुख में चले गए हैं। त्रिकूट पर्वत जिसका दुर्ग था, समुद्र जिसकी खाईं थी,ऐसी लंका जिसकी राजधानी थी,राक्षसगण जिसके योद्धा थे, सभी शास्त्रों और वेदों को जानने वाले शुक्राचार्य जिसके लिए मंत्रणा करते थे, कुबेर के धन को जिसने जीत लिया था, ऐसा रावण भी दैववश नष्ट हो गया। युद्ध मे,घर में,पर्वत पर,अग्नि में, गुफामें,अथवा समुद्र मे कहीं भी कोई जाय,वह काल के कोप से नहीं बच सकता। भावी होकर ही रहती है।पाताल मे जाय,इन्द्रलोक मे जाय, मेरु पर्वत पर चढ़ जाय, मंत्र औषधि, शस्त्र आदि से भी कितनी भी अपनी रक्षा करें, किंतु जो होना होता है, वह होता ही है-इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। मनुष्यों के भाग्यानुसार जो भी शुभ और अशुभ होना है वह अवश्य ही होता है।हजारों उपाय करने पर भी भावी किसी प्रकार नहीं टल सकती।कोई शोक-विहव्ल होकर आँसू टपकाता है, कोई रोता है, कोई बड़ी प्रसन्नता से नाचता है, कोई मनोहर गीत गाता है, कोई धन के लिए अनेक उपाय करता है, इस तरह अनेक प्रकार के जाल की रचना करता रहता है, अतः यह संसार एक नाटक है और सभी प्राणिवर्ग उस नाटक के पात्र हैं।
इतना कहकर भगवान ने रानी का हाथ पकड़कर कहा-नारदजी! विष्णु की माया देख ली।उठो अब स्नान कर अपने पुत्र-पौत्रों को अर्ध्यदैहिक कृत्य करो।यह माया विष्णु ने स्वयं निर्मित की है।ऐसा कहकर उसी पुण्य तीर्थ मे नारदजी को स्नान कराया। स्नान करते ही स्त्री रुप छोडकर नारदमुनि ने अपना रुप धारण कर लिया। राजा ने भी अपने मंत्री और पुरोहितों के साथ देखा कि जटाधारी, यज्ञोपवीत धारी,दण्ड कमण्डल लिए, वीणा धारण किए हुए, खड़ाऊ के ऊपर स्थित एक तेजस्वी मुनि हैं, यह मेरी रानी नहीं है। उसी समय भगवान नारद का हाथ पकड़कर आकाशमार्ग में श्र्वेतद्वीप आ गये।
भगवान ने नारदजी से कहा देवर्षि आपने मेरी माया देख ली। नारदजी ने हँसकर उन्हें प्रणाम किया।