
” शुद्ध विद्या ” माया से ऊपर और ईश्वर से नीचे होती है।
********************************************
क्या है?
शुद्ध विद्या।
ज्ञान से बुद्धि में विद्या का प्रवेश होता है। फिर सवाल उठता है ज्ञान क्या है?
सत्तत्वात संजायते ज्ञानम्।
अनुभव से अनुभव की तरफ जाते ज्ञान होता है।
ईश्वर की प्रत्यक्ष जानकारी ही ज्ञान है बाकी अज्ञान है।
शब्द सुनने से भी ज्ञान होता है।
पदार्थ को देखने से भी ज्ञान होता है।
शब्द विषय भेद से ज्ञान दो भागों मे विभक्त है
शब्दावछिन्न ज्ञान ही नाम ― वेद है (सुनने से)।
विषयावच्छिन्न ज्ञान ही नाम― ब्रह्म है ( देखने से )।
दोनों के अतिरिक्त तीसरा ज्ञान है। देखने सुनने से जो ज्ञान होता है वह आगे जाकर संस्कार मे परिणत हो जाता है।
अनुभव द्वारा आगे जाकर विशेष भाव को प्राप्त होता हुआ आत्मा में खचित हो जाता है इसे ही संस्कार कहते।
वैज्ञानिक परिभाषानुसार― यही विद्या नाम से जाना जाता है।
हमारा विश्व हमारा संस्कार है।
महाविश्व ईश्वर का संस्कार है।
विश्व विद्या रुप है। अतः
विषय अवच्छिन्न ज्ञान → ब्रह्म है।
शब्द अवच्छिन्न ज्ञान → वेद है।
संस्कार अवच्छिन्न ज्ञान → विद्या है।
सृष्टि का सम्बंध विद्या से है। आगम एवंं निगम दोनों से विश्व का निरुपण है। दोनों ही शास्त्र विद्या नाम से प्रसिद्ध हैं। (इसलिए कहा गया है आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी)।
जो माया उस असीम को ससीम बना देती है। जिसके प्रभाव में विश्वातीत विश्वचर और विश्व बन जाता है जो शक्ति→ काल को यज्ञरुप मे परिणत कर डालती है उसी महामाया का नाम प्रकृति है।
यह महामाया ही महाविद्या अथवा मूलप्रकृति है। यह दो भागों में विभाजित है ।
(१) शुद्ध अंश/परा प्रकृति/विद्या।
(२) अशुद्ध अंश /अपरा प्रकृति/अविद्या।
अपरा शक्ति― अपरा शक्ति को जप,होम,तर्पण, मार्जन, ब्राह्मण भोजन द्वारा अनुकूल कर सकते हैं।
परा शक्ति ― परा शक्ति को पटल, पद्धति, कवच,स्त्रोत, सहस्रनाम द्वारा अपने अनुकूल कर सकते हैं।
विशेष बात यह है कि अपरा शक्ति को शरीर और वाणी द्वारा तथा परा शक्ति को मानस पूजा द्वारा प्रसन्न कर सकते हैं लेकिन पहले बहिर्याग अर्थात अपरा शक्ति को अनुकूल करना जरूरी है।
सृष्टि के रचियता ब्रह्मा के पास दोनो शक्ति हैं।
(१) गायत्री शक्ति – परा प्रकृति है। यह विचार, भावना की उत्साह की शक्ति है।
(२) सावित्री शक्ति- अपरा प्रकृति है। यह जड़ शक्ति, अणु शक्ति है। भौतिक संसार इसी शक्ति से निर्मित है जिसे इन्द्रियों से जिनका स्वरूप देखा जा सकता है ,साथ ही साथ उपकरणों से परखा जा सकता है। जड़ प्रकृति का अर्थ गतिहीन नहीं है।।
………….(लगातार)