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“व्यक्त से अव्यक्त पराकाष्ठा का स्तर”
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वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार गति की एक सीमा के उपरांत पदार्थ अपने रुप को संयोजित नहीं रख पाता।
गति की एक सीमा के उपरांत पदार्थ का ऊर्जा मे परिवर्तित होना आरम्भ हो जाता है, पदार्थ की गति में पराकाष्ठा उसे ऊर्जा मे परिवर्तित करती है अर्थात व्यक्त जगत की ऊर्जा मे पराकाष्ठा उसे अव्यक्त जगत की ऊर्जा मे ले जाती है।
अर्थात किसी भी तत्व अथवा ऊर्जा की पराकाष्ठा अव्यक्त मे ही हो सकती है।
वर्षा ऋतु मे सन्ध्या समय इधर उधर जुगनू दिखते हैं दीपों की भाँति टिमटिमाते हुए किन्तु आकाश मे ज्योतिष्क सूर्य और चन्द्रमा नहीं दिखते। जुगनू रात्रि के अंधकार में प्रकाश नहीं दे सकता, जुगनू की तरह नास्तिक दृष्य सर्वत्र दिखते हैं वैदिक नियमों का पालन करने वाले दिखाई नहीं देते पर जिस प्रकार वर्षा ऋतु में कभी कभी सूर्य चन्द्र दिख जाते हैं उसी प्रकार कलियुग मे कुछ तथाकथित धर्म निर्माता जुगनुओं की तरह दिख जाते हैं।
वर्षा के पूर्व धरातल विभिन्न प्रकार की शक्तियों से लगभग क्षीण हो जाता है, अत्यंत कृश प्रतीत होता है, किन्तु वर्षा के बाद पूरा धरातल वनस्पति से हराभरा होकर स्वस्थ और बलिष्ठ प्रतीत होता है।
उसी प्रकार कमजोर और निराशा मे डूबा मनुष्य भी भक्ति में तपस्या करते हुए आध्यात्मिक जीवन को पुनः प्राप्त कर लेगा।
पहली वर्षा की फुहार और बादलों की गर्जना सुनते ही मेढकों की टर्र टर्र सुनाई पड़ने लगती है, उसी प्रकार जब कोई महान आचार्य आता है तो उसकी पुकार मात्र से सोया व्यक्ति भी वेदाध्ययन मे जुट जाता है। उसके जाते ही फिर सो जाता है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में ताल-तलैया, नदी-नद जल से भर जाते हैं अन्यथा वर्ष भर सूखे रहते हैं, उसी तरह भौतिकवादी मनुष्य शुष्क ही होते हैं किंतु कभी कभी वे तथाकथित ऐश्वर्यशाली स्थिति में होते हैं उनके घर बार संतान और पूंजी भी होती है किन्तु शीध्र ही वे नदी नद की भांति पुनः सूख जाते है।