
मन का कोई ग्राहक नहीं तथा मन को भी वास्तव में जगत से कुछ प्रिय नहीं लगता, इसलिये एक पदार्थ से दूसरे. पदार्थ मे भ्रमण करता हुआ सदा विकल रहता है। कोई भी पदार्थ मन को स्थाई रुप से अपनी ओर आकृष्ट किये रखने मे असमर्थ है।
अतः पदार्थों में आकर्षण शक्ति है, लेकिन इतनी नहीं कि स्थाई रुप से मन को बाँध ले। तो पहले पदार्थ फिर भौतिक तत्व पर आधिपत्य स्थापित करना है, फिर सत्व तत्व अर्थात भगवान को जानकर भगवान मे ही खो जाना है, ठीक वैसे ,जैसे कोई नमक का ढैला समुद्र की पैमाइश करने जायेगा तो समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जायेगा।
सोई जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हीं, तुम्हीं हो जायी।।