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कार्तिक कृष्ण एकादशी} द्वारा↓↓↓
रमा ( रंभा ) एकादशी }ब्रह्मवैवर्त पुराण
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०१ नवम्बर २०२१ सोमवार
अथ कार्तिक कृष्ण एकादशी की कथा- युधिष्ठिर जी बोले कि, हे भगवन्! कार्तिक कृष्ण पक्ष में कौन सी एकादशी होती है? इसको आप मेरे स्नेह से कृपा करके कहिये।
श्रीकृष्ण जी बोले कि, हे राजेंद्र! सुनो कार्तिक के कृष्णपक्ष की सुशोभन एकादशी का नाम रमा है। यह रमा एकादशी सब पापों को हरने वाली है; हे राजन्! इसके प्रसंगागत माहात्मय को भी मैं तुम्हें कहता हूँ। पहले मुचुकुंद नाम का एक इन्द्र से मित्रता रखनेवाला राजा हुआ था। उसकी मित्रता न केवल इन्द्र से ही थी पर यम, वरुण,कुबेर के साथ भी थी। भक्त विभीषण के साथ भी उसका मैत्री भाव था। वह राजा बड़ा वैष्णव तथा सत्य प्रतिज्ञ था, उसके शासन से सब राज्य सुखी था उसे हे राजन्! इस प्रकार निःसपत्न राज्य करते। उसके घर मे चंद्रभागा नामकी एक पुत्री हुई थी,जो नदीबनकर बह रही है, जिसको चन्द्रसेन नाम के एक सुंदर वर को दान की थी। वह कभी अपने श्वसुर के घर मे आया। संयोगवश उस दिन पवित्र एकादशी का दिन था। व्रत के दिन के कारण चन्पद्रभागा ने चिंता की कि, हे भगवन्! क्या होगा? क्योंकि मेरे पति अति दुर्बल हैं। वह भूख सहन नहीं कर सकते, इधर पिता का शासन बहुत उग्र है।
जिसके राज्य में दशमी ही के दिन यह ढोल बजाया जाता है। कि कोई मनुष्य किसी तरह भी एकादशी के दिन भोजन न करने पावे। उस ढोल की आवाज को सुन उसके पति ने अपनी स्त्री से कहा। हे सुशोभने! हे प्रिये! मुझे क्या उपाय करना चाहिये! जिससे मुझे दुःख न हो प्राणों की रक्ष हो जाय।चंद्रभागा ने उत्तर दिया कि,हे प्रभो! मेरे पिता के घर मे किसी को भी भोजन नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि, मेरे पिता के राज्य मे हाथी, घोड़े, ऊंट तथा अन्य पशुओं को भी। घास ,अन्न,या पानी नहीं दिया जाता। तब हे पते! मनुष्य तो कैसे इस एकादशी के दिन भोजन कर सकता है। यदि हे पते! आज भोजन करना ही चाहते हैं तो घर के बाहर चले जाइये। ऐसी बात शोचकर मन को दृढ कर लीजिये।। शोभन ने कहा कि, हे प्रिये! तुमने जो कहा वह सब सुना, मैं भी आज उपवास करूंगा। जो होनहार हो वह होगा सो देखा जायगा।। इस प्रकार भाग्य पर छोड़कर उसने व्रत किया। भूख,प्यास से व्याकुल होकर वह बड़ा दुःखी हुआ। इस प्रकार घबडाते हुए उस दिन उसे सूर्य अस्त हो गया।वैष्णवों के आनंद को बढ़ाने वाली रात का आगम हुआ।। यह रात हरिपूजन परायण मनुष्यों को जागरण करने में आनंद बढ़ाने वाली थी पर उस शोभन के वास्ते दुःखकारिणी ही साबित हुई। सूर्योदय होने के समय ही उस शोभन की मृत्यु हो गई। राजा ने राजकुमार के दाहयोग्य उत्तमकाष्ठ से उसका दाह करा दिया। चंद्रभागा ने भी अपने पिता के मना करने से आत्मसमर्पण नहीं किया। पिता के घर मे उसका श्राद्ध कर्म किया गया। चन्द्रभागा पिता के ही घर पर रही। पिता के अवरोध से सती नहीं हुई। हे राजन्! उस शोभन ने उस रमा के व्रत के प्रभाव से मंदराचल के शिखर पर एक उत्तम देवनगर प्राप्त किया। जो बढ़िया किसी से भी न दबाये जानेवाला असंख्य सुवर्ण निर्मित खंभों से बना हुआ अमित सौधौं वाला तथा रत्नों से जड़ा हुआ एवं वैडूय्यों से पूर्ण मंडित था। वहाँ पर सफेद चँवरों से ढुलते हुए अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से बने हुए सिंहासन पर जा बैठा, जिसपर सफेद छत्र और चामर ढुल रहे थे।कानों मे कुंडल और शिर पर मुकुट धारण किये था। गंधर्वगण उसकी स्तुति करने लग रहे थे और अप्सराएं सेवा करती थी। उस जगह वह शोभन राजा दूसरे इन्द्र की तरह शोभा पाने लगा। एक सोमशर्मा नाम से विख्यात मुचुकुन्द नामक नगर मे निवास करता था। एक दिन तीर्थ यात्रा के प्रसंग मे उस ब्राह्मण ने उस राजा के जँवाई के वहीं दर्शन किये और उसको अपने राजा का जामाता जान समीप चला गया। उसने आसान से शीध्र ही उठकर उस उत्तम ब्राह्मण के लिये नमस्कार की अपने श्वसुर राजा के घर के कुशल प्रश्न किये तथा अपनी स्त्री चंद्रभागा और नगर के भी राजी खुशी के समाचार पूछे। सोमशर्मा ने कहा कि, हे राजन्! आपके श्वसुर के घर में सब कुशल है।और आपकी पत्नी चन्द्रभागा भी आनंद मे है और नगर मे भी सब तरह से कुशल है। हे राजन्! आप अपना समाचार कहिए मुझे बड़ा आश्चर्य है कि, ऐसी विचित्र और सुंदर नगरी कहीं किसी ने भी नहीं देखी है। हे नृपते! आप इसको कहिये कि,यह सब कहाँ से मिला है। शोभन ने उत्तर दिया कि, हे द्विजेन्द्र! कार्तिक कृष्ण पक्ष की रमा नाम की एकादशी के उपवास से मैंने यह विनाशी पुर प्राप्त किया है।और जिससे स्थिर पुण्य का भोग मिले वैसा यत्न करो। द्विजेन्द्र ने कहा कि,महाराज! ध्रुव और अध्रुव किस प्रकार होता है? इसका आप वर्णन करो। मैं उसी तरह करूंगा इसमें झूठ न होगा।
शोभन ने कहा कि, मैनें यह व्रत बिना श्रद्धा के किया जिससे अध्रुव फल मिला है। अब जिस कर्म से ध्रुव फल की प्राप्ति होती है उसको सुनो। मुचुकुन्द राजा की चन्द्रभागा सुशोभना पुत्री है। वह आप जानते ही है उसको जाकर यह सब वृतांत कहो तो यह ध्रुव फल हो जायगा। यह सुनकर उस ब्राह्मण ने यह सब हाल उस चन्द्रभागा को कह दिया। उसने बड़े विस्मय से आँखें फाडकर ब्राह्मण के वचन सुने और कहा कि।। हे ब्राह्मण! आप सब ये प्रत्यक्ष की बात कहते हैं या कोई स्वप्न है? सोमशर्मा ने उत्तर दिया कि ,हेपुत्रि ! मैनें तुम्हारे पति को महावन में प्रत्यक्ष देखा है। मैनें उसका बड़ा, सुंदर देवताओं का जैसा न डराने वाला नगर देखा है परन्तु उसने यह अध्रुव बताकर स्थायी होने का यह उपाय कहा है ,सो तुमको करना चाहिए। चंद्रभागा बोली कि, हे महाराज! आप मुझे वहाँ ले चलिए; पति के दर्शन करना चाहती हूँ। आपने व्रत के पुण्य से पति के उस वैभव को ध्रुव करुंगा। महाराज! हम दोनों का जैसे संयोग हो ऐसा प्रत्यंत्न करो। क्योंकि वियुक्त मनुष्यों के संयोग कराने वालों को बड़ा पुण्य होता है। इससे आपको भी बडा भारी पुण्य होगा। यह सुन सोमशर्मा उसके साथ चल दिया।
वह उसको मन्दराचल के निकट वामदेव के स्थान पर ले गया। वामदेव ऋषि ने उन दोनों का हाल सुनकर उज्जवल चन्द्रभागा का अपने पवित्र वेदमंत्रों के अभिमंत्रित जल से अभिषेक किया। ऋषि के मंत्र प्रभाव से और एकादशी के उपवास से वह दिव्यदेह धारण कर दिव्यगति को प्राप्त हुई। वह हर्ष से नेत्रों को खिलाती हुयी अपने पति के पास गयी और शोभन भी अपनी प्रेयसी कान्ता को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने निकट बुलाकर बाई गोद मे बिठाया चंद्रभागा ने तब हर्ष के मारे यह प्रियवचन उसको कहे।कि कान्त! मेरे वचन.सुनिए जो पुण्य मेरे में है जब मैं पिता के घर में आठ वर्ष से अधिक बड़ी हुई। तब से जो मैनें पुण्य किया है और जो मैनें एकादशी के व्रत विधि पूर्वक श्रद्धालु चित्त से किये हैं। उस श्रद्धा, भक्ति और पुण्य के प्रभाव से आपका यह नगर और उसकी सब प्रकार की समृद्धि प्रलय पर्यंत स्थिर रहेगी। हे राजा शार्दूल! इस प्रकार वह अपने पति के साथ दिव्य रुप दिव्यभोग और दिव्य आभरणादि सामान से नित्य रमण करने लगी। शोभन भी रमा के व्रत के प्रभाव से दिव्यरुप धारण करके मन्दराचल के शिखर पर चन्द्रभागा के साथ आनंद करता रहा। हे नृपते!चिंतामणि और कामधेनु के समान यह रमानाम की एकादशी है। इसका वर्णन तुम्हारे सामने मैनें कर दिया है। हे राजन्! ऐसे व्रत को जो उत्तम लोग करते हैं उनके ब्रह्म हत्या महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यह भी ब्रह्मवैवर्त पुराण का कहा हुआ कार्तिक कृष्णा रमा नाम की एकादशी का माहात्म्य सम्पूर्ण हुआ।।