November 2, 2021

Dhanvantri Ji Avataran Katha Purn | Dhanvantri Poojan

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आरोग्य के देवता धन्वन्तरि जी
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वैदिक काल में जो स्थान अश्विनी कुमारों को प्राप्त था,पौराणिक काल में वह स्थान धन्वंतरि जी को प्राप्त हुआ। इनका प्राकट्य कार्तिक कृष्ण त्रियोदशी को समुद्र मंथन के दौरान हुआ। यह भी माना जाता है कि इसी दिन उन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। धन्वंतरि भगवान विष्णु के अंशावतार हैं:
स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः।
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक्।।
( श्रीमद्भागवत महापुराण 8/8/34-35 )
भगवान विष्णु के 24 अवतारों मे धन्वंतरि की गणना होती है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी इन्हें’ स्मृतमात्रार्तिनाशनः’ अर्थात स्मरण मात्र से रोग पीड़ा का नाश करने वाला कहा गया है।( श्रीमद्भागवत पुराण9/17/4 )

समुद्र से अवतरण
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पुराणों के अनुसार देवताओं और असुरों ने मिलकर जब अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया, तब उसमें से दिव्य कान्तिमान, सुन्दर ,हाथ में अमृत कलश लिए विष्णु के नाम का जप करते एक पीताम्बरधारी अलौकिक पुरुष प्रकट हुए। वे भगवान विष्णु के अंशावतार धन्वन्तरि थे। वे बड़े ही सुन्दर और मनोज्ञ थे,उन्होंने शरीर पर पीताम्बर धारण किया हुआ था। उनके सभी अंग अनेक प्रकार के दिव्य आभूषणों एवं अलंकरणों से अलंकृत थे। वे कानों में मणियों के दिव्य कुण्डल धारण किए हुए थे। उनकी तरुण अवस्था थी तथा उनका सौन्दर्य अनुपम था। शरीर का रंग बड़ा ही सुन्दर साँवला था, चिकने और घुंघराले बाल लहराते हुए थे। उनकी छवि विचित्र थी। उन्होंने अमृत से पूर्ण कलश धारण कर रखा था।
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः।
उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः।।
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवाअ्रुणेक्षणः।।
श्यामलस्तरुणः स्त्रग्वी सर्वाभरणभूषितः।।
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः।।
स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः।।
अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद् वलयभूषितः।।
( श्रीमद्भागवत पुराण 8/8/31-34 )
धन्वंतरि का आविर्भाव कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हुआ था, इसलिए इस दिन को धनतेरस के रुप मे मनाया जाता है।
समुद्र से निकलते ही धन्वन्तरि को भगवान श्रीविष्णु के दर्शन हुए। उसी समय श्रीविष्णु ने उनसे कहा,’तुम अप् ‘ यानी जल से उत्पन्न हुए हो,इसलिए तुम्हारा नाम ‘अब्ज’ होगा। द्वापर में काशीराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद शास्त्र को 8 भागों मे विभक्त कर उसे अष्टांगो से युक्त करोगे।

काशी मे अवतरण
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द्वापरयुग मे काशी राजा धन्व के यहाँ पुत्र के रूप में भगवान् धन्वन्तरि अवतरित हुए। इसी कारण उनकानाम धन्वन्तरि हुआ।
तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा।
काशिराजो महाराज सर्वरोगप्रणाशनः।।
( हरिवंशपुराण 1/29/26 )
सुश्रुतसंहिता मे धन्वन्तरि जी कहते हैं कि’ देवताओं की वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु को दूर करनेवाला आदिदेव धन्वन्तरि मैं ही हूँ। आयुर्वेद के अन्य अंगो सहित शल्यतंत्र का उपदेश करने के लिए फिर से इस पृथ्वी पर आया हूँ।’
अहं हि धन्वन्तरिरादिदेवो जरारुजामृत्युहरोअ्मराणाम्।
शल्याड़्गमड़्गैरपरैरुपेतं प्राप्तोअ्स्मि गां भूय इहोपदेष्टुम्।
( सुश्रुतसंहिता 1/21 )
उन्होंने महर्षि भरद्वाज से आयुर्वेद और चिकित्सा कर्म की शिक्षा ली। इसके बाद आयुर्वेद को आठ भागों में विभक्त कर उसे आठ अंगो से युक्त किया। साथ ही, आयुर्वेद का प्रचार भी किया। उन्होंने ” धन्वंतरि संहिता” नामक ग्रंथ भी लिखा। सुश्रुत आदि एक सौ मुनि पुत्रों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की।
धन्वन्तरि द्वारा प्रतिपादित आयुर्वेद के आठ अंग-कायचिकित्सा, बालचिकित्सा, ग्रहचिकित्सा, ऊर्ध्वाँग चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, दंष्ट्र चिकित्सा, जरा चिकित्सा, वृष चिकित्सा हैं।
आयुर्वेद के प्रादुर्भाव के सम्बंध में मान्यता है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने एक लाख श्लोकों वाले आयुर्वेद का प्रकाशन किया था। जिसमें एक हजार अध्याय थे उनसे प्रजापति ने इसे पढ़ा, तदुपरांत यह अश्विनी कुमारों को प्राप्त हुआ और अश्विनी कुमारों से इन्द्र को इसका ज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्र से धन्वन्तरि जी को यह ज्ञान प्राप्त हुआ। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार विषविद्या के निराकरण का ज्ञान इन्हें गरुड़ से प्राप्त हुआ।
धन्वन्तरि जी के सम्बंध में यह भी मान्यता है कि इन्होंने ही अमृतमयी औषधियों की खोज की थी। इन्हें शल्यचिकित्सा का ज्ञान था। इनके शिष्य सुश्रुत विश्व के प्रथम सर्जन माने जाते हैं।

धन्वन्तरि को पीतल की धातु प्रिय है। यही कारण है कि धनतेरस पर पीतल के बर्तन खरीदे जाते हैं।
दक्षिण भारत के केरल एवं तमिलनाडु प्रदेश में धन्वन्तरि जी के मंदिर हैं, श्रीरंगम में श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में धन्वन्तरि जी का भी मंदिर है जो 12 वीं शताब्दी का माना जाता है। केरल मे थेवेलक्कडू,मरुतोर्वत्तोम, मावेलिक्क,त्रिसूर, वल्लपट्टनम,इदुवत्तोम मे धंवंतरि जी के मंदिर हैं।
जिन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्या रहती है उन्हें निम्न मंत्र का जप करना चाहिए-
ऊँ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वन्तरे अमृतकलशहस्ताय सर्वभय-विनाशाय सर्वरोग- निवारणाय त्रिलोकपतये त्रिलोकनाथ श्री महाविष्णु स्वरुप श्री धन्वन्तरि स्वरुप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः।।

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