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३० नवम्बर २०२१ मंगलवार
*उत्पत्ति* एकादशी
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द्वारा – भविष्योत्तर पुराण
मार्गशीर्ष की कृष्णा एकादशी का व्रत- अर्जुन बोले ,हे -भगवान! आपको नमस्कार है, आप सृष्टि के स्थिति और संहार को करनेवाले तथा अव्यक्त आत्मस्वरुप और नारायण हैं । इसलिए हे केशव ! आपको नमस्कार है। हे जगत् के नाथ! अन्तर्यामी शास्त्रों और कवियों के ईश हो। वक्ता और जगत्पति हो , इसल। हे प्रभी!हे स्वामिन्! एकादशी किस प्रकार उत्पन्न हुई! इस संदेह को आप दूर कीजिए। गुरु लोग अपने शिष्य को गुप्त रहस्य भी प्रकट करते हैं इसलिये आप मुझपर कृपाकर इसको इस समय कहैं। मार्गशीर्ष महीने की कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसका फल और विधि क्य है? उसमें किस देव की पूजा की जाती है। तथा पहले उसे किसने किया है? यह विस्तार से कहिये।
श्रीकृष्ण बोले कि ,हे राजन! उस कथा की जिसको तुमने लोगों के हित की दृष से पूछा है और जो पापों को दूर करने वाला है सुनों। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष मे उसका *उत्पत्ति* है। जो मनुष्य उस दिन उपवास करता है वह धार्मिक होता है और धर्म समय सत्य तथा सत्य से लक्ष्मी होती है। पहले मुरनामक दैत्य को नाश करने के लिए उत्पन्ना नाम की मेरीक्षप्रिया का जो लोग व्रत करतें हैं उनकों निश्चय ही सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार पाप नष्ट होते हैं कि, वे फिर यमराज के घर नहीं जाते अर्जुन बोले कि, महाराज! उसका नाम उत्पन्ना कैसे हुआ? वह क्यों अधिक देवताओं की प्यारी पवित्र और पुण्य मे अधिक मानी जाती है? श्रीकृष्ण जी बोले कि हे अर्जुन! पहले सतयुग में मुरनामक दानव हुआ था। वह बड़ा प्रचण्ड लोगों को भय पहुंचाने वाला था। उस महाबली दानव ने सबसे पहले के इन्द्र को उखाडकर फेंक दिया, एवं हे पाण्डव! उस उग्र ने इन आदित्य, वसु,ब्रह्मा, वायु, अग्नि, आदि देवताओं को जीत लिया। इस प्रकार स्वर्ग से फटकारे हुए ये देव डर के मारे पृथ्वी पर घूमने लगे। वे सब शंका और भय से युक्त होकर महादेव जी के पास गये। इन्द्र ने ईश्वर के आगे यह सब हाल बतलाया-किस प्रकार सम लोग स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर घूमते हैं। महाराज!पृथ्वी में देवतागण मर्त्यलोक होने के कारण शोभा नहीं पाते इसलिए इसका कोई रास्ता बताइये कि, देवताओं की क्या व्यवस्था हो।। शिवजी बोले हे इन्द्र! तुम गरुणध्वज भगवान की शरण मे जाओ। क्योंकि, वो शरणागत जो दीन और आर्तजन हैं उनकी रक्षा में रहनेवाले हैं। इस प्रकार उस बुद्धिमान इन्द्र ने ईश्वर के वचनों को सुनकर देवता, अप्सरा, गन्धर्व, सिद्ध,विद्याधर और उरणों के साथ हे धनंजय! जहां भगवान् जगन्नाथ जनार्दन सो रहे थे। वहां जाकर हाथ जोड स्तोत्र कहा कि, हे देव वन्दित देव-देवेश!हे दैत्यारे हे पुण्डरीकाक्ष! हे मधुसूदन! आप मेरी रक्षा करिये। आपको नमस्कार है। हे जगत्पते! आपको नमस्कार, स्थिति के करनेवाले आपको नमस्कार। आप दैत्यों का विनाश करनेवाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार है। हे मधुसूदन! मुझे बचाइये, हे जगन्नाथ! आपकी शरण में ये सब देवता भययुक्त होकर आये हैं, इसलिए आप इनकीभय से व्याकुल मेरी हे देवदेवेश! हे जनार्दन!आप रक्षा कीजिये। आप देवताओं को आनंद देने वाले तथा दानवों का नाश करनेवाले हैं। अतःमेरी रक्षा करें, तुम ही मेरी गति और मति हो और आप ही कर्त्ता हर्ता और परायण हो । आप ही माता और पिता हो। आप ही जगत के पिता होता, हे प्रभो! हम सब उस बली दानव से हार चुके हैं। स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी में घूम रहे हैं।
इस प्रकार इन्द्र के वचन सुनकर विष्णु भगवान् बोले कि आपका शत्रु कैसा है? उसका बल और क्या नाम है तथा उस दुष्ट का कौन सा स्थान है। वीर्य्य और पराक्रम उसमें कैसा है? इन्द्र बोले कि, हे देवेश! पूर्व समय में अत्यंत अपूक सत्व तालजंघ नाम का अति उग्र और महा बलशाली असुर ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ।उसका पुत्र मुरनामका दानव है जो ब्रह्मा से वर पाने के कारण बड़ा उत्कट बलवान हो गया है। पहले यह चन्द्रवती नाम के स्थान में रहता था जहां से सब देवताओं को जीतकर स्वर्ग से भी निकाल दिया। जिसने इन्द्र भी दूसरा बना लिया और अग्नि, चंद्र, सूर्य, यम, वरुण आदि को भी दूसरे बनाकर सबको अधीन कर लिया। महाराज यह बिल्कुल सत्य है।। उसके इन वचनों को सुनकर जगन्नाथ भगवान् कुपित हो गये, और कहा कि, मैं उस दुष्ट को मारुंगा। भगवान् चन्द्रवती पुरी में देवताओं को साथ लेकर गये।वहां वह अभिमानी दानव सब देवों को देखकर अपने असंख्य शस्त्र अस्त्रों से तथा दिव्य आयुधों से , देवों को मारने लगा। असुरों की बारबार की मार से सब देव डरके मारे दिशाओं में भागने लगे। उसने भगवान को वहां बैठा देख ‘ठहर-ठहर’ का वचन कहा। भगवान् ने देखकर कहा कि , हे दुष्ट!असुर !मेरी बाहू देख,यदि तू जीना चाहता है तो पहले मेरे चक्र की शरण जा। इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर वह क्रोधी असुर अपने दानवों के साथ सब आयुधों को लेकर लड़ने को आया। भगवान् ने सम्मुखागत समस्त दानवों को मार दिया फिर बहुत दिव्य बाण उस दैत्य के मारे जिनसे वो अत्य विह्वल हो गया। भगवान् ने दैत्य सेना के अन्दर अपना चक्र छोड़ दिया जिससे शिर कट कट कर बहुत से दैत्य मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस प्रकार जब सारे असुर नष्ट हो गए, तब वो अकेला ही लड़ने लगा उसने बार बार लड़कर भगवान् को जीत लिया। हारने पर उस दैत्य से भगवान् ने बाहुयुद्ध करने की याचना की। कुश्ती लडते लडते उसने हजार बर्ष बिता दिये। भगवान् उससे पराजित होकर बदरिकाश्रम चले गये। वहां सिंहवती नाम की गुहामें जा कर सो रहे। पीछे लगा हुआ,वह दानव वहां भी जा पहुंचा। मुझे सोता हुआ देख कर कहने लगा कि, मैं दैंत्यों के भय देनेवाले तुझें मारूंगा इसमें कोई सन्देह न कर। इस प्रकार उस अमित्र को खींचने वाले दैत्य के ऐसा कहने पर भगवान् के शरीर से एक कन्या उत्पन्न हुईं जो अत्यन्त सुंदर और दिव्य आयुधों युक्त थी विष्णु के तेज से उत्पन्न होने वाली उस महा बलवती कन्या के रुप से वह दानव मोहित हो गया। युद्ध विद्या कुशल उस कन्या ने उस दैत्य से युद्ध करके उसे मार दिया।और उससे विष्णु भगवान् की निद्रा भौग हुई। भगवान् को उस दैत्य की मृत्यु से बड़ा आश्चर्य हुआ और बोले कि मेरे इस भयंकर शत्रु को किसने मारा है? इस भूतल पर मेरे समान न कोई देव है और न कोई गन्धर्व है इतना कहते ही दिव्य शरीर धारिणी उस कन्या ने कहा। वो कन्यारुपी एकादशी ही थी कि, उस दुष्ट राक्षस को जिसने सब देवताओं को स्वर्ग से निकालकर भगा दिया है और जो देवताओं को भय पहुंचाने वाला है मैंने मारा है। उसके इस वचन को सुनकर विष्णु ने कहा कि, हे भद्रे! तुमने मुझपर कृपा कर बड़ा उपकार किया। वह दानव आज मर गया जो देवताओं को भय पहुंचाता था। जिसने मुझे जीता और कंस को गिराया था। विष्णु के इन वचनों को सुनकर देवी ने उत्तर दिया, हे विष्णों!मै सब शत्रुओं का विनाश करने वाली एकादशी हूं। इसलिये मैंने ही उस देवताओं को भय पहुचाने वाले दैत्य को मारा है। भगवान् इस वचन को सुनकर बोले कि, हे देवि! मैं तुमपर प्रसन्न हूं इसलिए तुम अपना इच्छित वर मांगों। उस दैत्य के मर जाने पर आज सब देवों के घर हर्ष हो रहा है। तीनों लोकों में आनंद हो रहा है मुनिगण प्रसन्न हैं। अतः मैं तुम्हें देव दुर्लभ वर देता हूँ।। एकादशी ने कहा हे देवदेव ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो आप मुझे तीन वचन दीजिए।
श्रीभगवान बोले कि हे देवि! मैं तुम्हें वचन कहता हूँ कि, तुम्हारे माँगे हुए तीनों वचन वर तुम्हें देता हूँ। एकादशी ने कहा-महाराज!पहला वर तो तह है कि, मैं आपकी तीनों लोकों मे,मन्वन्तरों मे, युगों में, सदा ही प्रिया रहूं।। दूसरा वर यह है कि सब विघ्नों को और पापों को नाश करनेवाली मैं सब तिथियों मे प्रधान तिथि एवं आयु और बल के बढ़ाने वाली रहूं। तीसरा वर यह है कि, हे जनार्दन! जो लोग मेरे व्रत को बड़ी श्रद्धा पूर्वक भक्ति से करें और उपवास करें तो उनकी सब प्रकार की सिद्धि हों जो आप मुझपर प्रसन्न हो तो।। श्रीकृष्ण बोले कि हे कल्याणि!जो तुम कहती हो वह सब सत्य होगा। जो तेरे और मेरे भक्त धर्मार्थ काम मोक्ष के वास्ते उपवास करेंगे वे चारों युगों में प्रसिद्ध होकर मेरे निकट पहुंचेंगे। और तुम मेरी प्रसन्नता से सब तिथियों में उत्तम रहोगी ऐसा सुनकर वह वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गई।।
श्रीकृष्ण बोले अब और पुराना एक इतिहास सुनाता हूं कि- कीकट देश के शुभ कर्णीक नगर मे।कर्ण सेन नामका राजर्षि था। जिसके राज्य मे सारी प्रजा प्रसन्न रहती थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र सब उसका अनुमोदन करते थे। हे अर्जुन! उस राजा के राज्य में दुर्भि,दरिद्रता, अकालवृष्टि,बिमारी और चोरी कभी न हुई। उसके राज्य में कहीं भी कोई गरीब और सन्तान हीन मनुष्य तथा कोई भी माँ बाप अपने पुत्र का दुःख न उठाता था। ऐसे सुयोग्य राजा के समय में भी एक ऐसा ब्राह्मण था जो अति गरीब और भूख से दुबला हो रहा था। कुटुम्ब का पालन करने में अशक्त था उसकी स्त्री बड़ी सदाचारिणी तथा पतिसेवा परायण थी। उस सुदामा नाम ब्रहर्षि की सती स्त्री ने एक दिन अपने पति से उदास होकर एकांत मे कहा कि महाराज! पहले पाप करने से मनुष्य धर्म हीन होता है। धर्म हीन होने से धन नहीं होता तथा किसी प्रकार की क्रिया भी नहीं होती। इसलिए महाराज! आप किसी उपाय से धर्म उत्पन्न होने का प्रयत्न कीजिए। इसी बीच हे राजन ! देवर्षि भी वहाँ आ पहुंचे।। उन दोनों स्त्री पुरुष ने उठकर मुनि का सत्कार किया और आसन पर बिठाकर प्रार्थना की कि हे प्रभो! हमारे दिये हुए अर्घ्य को स्वीकार कीजिये यह आपको हमारा नमस्कार है। आज हमारा जन्म सफल है। आज हमारी क्रिया सफल हैं और आपके दर्शन से हमारा सब कुछ सफल है। महाराज! इस नगर में सब मनुष्य सुखी हैं परन्तु हम दोनों बड़े गरीब और दुःखी हैं। इसलिए आप प्रसन्न होकर कहिये कि, हम प्रकार धनीं हों। क्योंकि धनहीन मनुष्य का जन्म और मनोरथ सब व्यर्थ हैं। हे राजेंद्र! इस प्रकार सुनकर नारदजी बोले कि, मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी जो उत्पत्ति नाम की एकादशी है, उस दिन उपवास करने से मनुष्य निश्चय ही धनी होता है। और सब प्रकार के पाप नष्ट होते हैं। यह मैं तुम दोनों से सत्य कहता हूं। यह हरिवासर मनुष्यों को सब सुखों का देने वाला है, नारद जी के चले जाने पर उन्होंने इस व्रत को बड़े यत्न से किया । उस व्रत के प्रभाव से भगवान् प्रसन्न हो गये और लक्ष्मी स्वयं उस ब्राह्मण के घर आकर विराजमान हो गई। वह सब प्रकार के महान भोगों को भोगकर बैकुंठ मे चला गया।इसलिये हे राजन! हरिवासर को अवश्य उपवास करना चाहियें। उत्तम व्रत करनेवाले कभी इस व्रत को करने मे अन्तर न करें।
हे पार्थ! दोनों पक्षों में एक ही तिथि है। उदयकाल में एकादशी और अन्त मे कुछ त्रयोदशी हो मध्य मे पूर्ण द्वादशी हो तो वह भगवान् की प्यारी त्रिस्पृशा नाम एकादशी होती है। इस दिन उपवास करने से हजार एकादशी का फल प्राप्त होता है और ऐसी एकादशी के दिन किया हुआ दान सहस्त्र गुणित होता है। । अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया, और चतुर्दशी पूर्वतिथि से विद्ध हो तो न करनी चाहिए और आगे तिथियों से युक्त हों तो करनी चाहिये। दशमी के वेध से युक्त एकादशी पूर्वकृत पुण्य को नष्ट करती है।
जिस दिन रात मे एकादशी एक घड़ी प्रभात के समय में हो तो उस तिथि का परित्याग करना चाहिए।। द्वादशी युक्त एकादशी का उपवास करना चाहिए । यह मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिये कह दिया है।
एकादशी का उपवास करनेवाला जन अवश्य ही भगवान् के उस परमस्थान को जाता हैं जहाँ कि स्वयं भगवान् विराजते हैं।। वे लोक लोक मे धन्य हैं जो विष्णु के भक्त हैं। जो पर्व के षमय एकादशी के माहात्म्य को कहें सुनें तो ,हे अर्जुन! उन्हें सहस्त्र गोदान का फल प्राप्त है। दिन मे या रात में जो एकादशी की कथा को भक्ति से सुनते हैं। वे कोटिकुल पर्यन्त विष्णुलोक मे निवास करते हैं। एकादशी के पढ़ते हुए माहात्मय को जो मनुष्य सुनते हैं उनके ब्रह्म हत्या पाप भी नष्ट हो जाते हैं। हे अर्जुन! इस एकादशी के समान समस्त पापनाशिनी और दूसरी कोई तिथि नहीं है।।
यह श्री भविष्यपुराण का मार्गशीर्ष मास कृष्ण पक्ष की एकादशी *उत्पत्ति* एकादशी का माहात्म्य सम्पूर्ण हुआ।।