
पौष शुक्ला एकादशी( पुत्रदा एकादशी)
१३ जनवरी २०२२ गुरुवार
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युधिष्ठिर बोले कि, महाराज! आपने बड़ी कृपा करके सफला एकादशी की कथा सुनाई। अब आप पौष शुक्ला एकादशी की कथा और विधि को सुनाइये। उसका नाम और विधि क्या है। कौन से देवता का उसमें पूजन होता है। हे पुरुषोत्तम हृषीकेश! इस व्रत के करने से आप किस पर प्रसन्न हुए थे?श्रीकृष्णचन्द्र बोले कि, हे राजन ! पौष की जो एकादशी होती है, हे महाराज! संसार के कल्याण के लिये उसे और उसकी विधि भी साथ कहता हूं। हे राजन! पहिले कही हुयी विधि से प्रयत्न के साथ यह करनी चाहिए, इसका नाम पुत्रदा है सब पापों को हरने वाली है। इसके अधिष्ठाता देव कामना को पूरी करने वाले सिद्धिदायक भगवान नारायण हैं। इस चर अचर जगत मे इससे उत्तम कोई और एकादशी नहीं है। यह विद्या, यश और लक्ष्मीवाला बनाती है। हे राजन! इसकी पापहारिणी कथा को सुनिये मैं कहता हूं।।
भद्रावती पुरी में सुकेतुमान राजा था; उसकी शैव्या नाम की प्रसिद्ध रानी थी। उसके कोई संतान न थी। पुत्रहीन राजा ने अपना मनोरथ बहुत समय मनोरथों से नष्ट कर दिया पर वौशकर्ता पुत्र उत्पन्न न हुआ। उसने धर्म से बहुत समय तकबड़ी चिंता की वें दोनों राजा-रानी रात दिन इसी चिंता मे निमग्न रहने लगे। पितर लोग भी इसी चिंता मे उसके दिये हुये जल का गुनगुना भोग करने लगे। कि पितर लोग सोचने लगे कि, राजा के बाद और कोई नहीं है जो हमारा तर्पण करे,इस कारण इसका दिया हुआ गुनगुनाते पिया जा रहा है। उस राजा को बन्धु,मित्र,मंत्री,हाथी, घोड़े आदि कुछ भी प्रिय नहीं मालूम होते थे। उस राजा के मन मे बड़ी निराशा उत्पन्न हुई,और विचार करने लगे कि ,पुत्रहीन ,मनुष्य के जन्मका कोई फल नहीं है तथा उसका घर शून्य है हृदय सदा ही दुःखी है। पितर,देव, मनुष्यों का ऋण तब तक नहीं छूटता जबतकि उसका घर में पुत्र न हो,इसलिए पुत्र सब तरह से उत्पन्न करना चाहिए। जिन पुण्यात्माओं के घर में पुत्र का जन्म होता है उनको इस लोक में यव और यश और परलोक मे शुभगति प्राप्त होती है।
उसके घर मे आयु,आरोग्य और सम्पति नित्य रहती है। पुण्यवान लोगों को ही पुत्र पौत्रों की प्राप्ति होती है। बिना पुण्य और विष्णु भक्ति के पुत्र सम्पत्ति और विद्या नहीं प्राप्ति नहीं होती।यह मेरा निश्चय है। इस प्रकार वह राजा रात दिन प्रातः तथा आधीरात जब देखो तब सुख न पा सका एवम चिन्ता करता हुआ अपनी आत्माघात की दुर्बुद्धि करने लगा पर आत्मघात मे उसे दुर्गति देखी। अपने शरीर को दुर्बल तथा पुत्रहीन देखकर फिर बुद्धि से अपने हित की बात विचार कर घोड़े पर चढ़ एक निर्जनजंगल चला गया।इस बात की खबर उसके किसी मंत्री पुरोहित आदि को भी न हुई।वह उस शून्य जंगल में जिसमें कि ,वन्य पशु से भरे रहे हैं। उन जंगली जानवरों के अंदर वन के वृक्षों को देखता हुआ विचार करने लगा। फिर अनेक प्रकार के बड,पीपल, बेल,खजूर,कटहल,मौलश्री, सदापर्ण,तिंदुक,तिलक,शाल,तमाल,सरल,इंगुदी,
शीशम,बहेड़ा,ल्हिसोढ़ा,विभीतक,शल्लकी,करोंदा,सांठी,खैर,पलाश आदि सुंदर वृक्षों को उसने देखा।तथा मृग,व्याध्र,सिंह,वराह,बन्दर,गवय,श्रृगाल, शशक,बनबिलाव एवं क्रूर शल्लक और चमर भी उसने देखे तथा वाँमी से निकलते हुए साँप भी उसके देखने में आये। अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ उसने वन के हाथी तथा मत्त हाथी एवम् हथिनियों के बीच मे उपस्थित चतुर्दन्त यूथनाथ भी देखे। उन्हें देख वो उन हाथियों को और अपने को सोचने लगा उनके बीच में घूमते हुए उसने परम शोभा पाई।। राजा ने बड़े आश्चर्य के साथ उस वन को देखा, कभी गौंधुआओं की हूहू सुनी तो कभी उल्लू की घूघू सुनी। उन्हें देखता सुनता तथा उन पक्षी मृगों को देखता लन में घूमने लगा, राजा मध्याह्न तक इसी तरह वन को देखता रहा। इधर उधर घूमते फिरते भूख प्यास ज्यादा सताने लगीं, कंठ सूख गया सी दशा में सोचने लगा कि मैंने ऐसा कौन सा पाप किया था जिससे मुझे ऐसा दुःख मिला, मैंने यज्ञ और पूजा से देवता संतुष्ट किये थे। उसी तरह ब्राह्मण भी मिष्ठान, भोजन,दक्षिणा से प्रसन्न किये थेऔर प्रजा का भी पुत्र की तरह पालन किया है। मुझे यह इतना बड़ा भारी दुःख क्यों मिला? यह चिंता करता हुआ वध में और भी अगाड़ी चला।। राजा ने सुकृत के प्रभाव से एक सुंदर सरोवर देखा, मानस षर वर से स्पर्धा करता हो इतना सुंदर था कमलिनियों से सब ओर से शोभित था। उसमें कारण्डव,चक्रवाक,और राजहंस बोल रहे थे। उसमें बहुत से मगरमच्छ एवं दूसरे जलचर थे। उसके पास ही बहुत से ऋषि आश्रम भी दृष्टि गोचर हूए,वे सब शुभशंसी निमित्तो के साथ लक्ष्मीवान राजा ने देखे। दाहिना नेत्र और हाथ फड़कने लगा, इनका स्फुरन अच्छा होता है। उसके किनारे मुनि लोग गायत्री जप कर रहे थे। राजा घोड़े से उतरकर उनके अगाड़ी खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर उन सब प्रशस्त व्रतवाले मुनियों के चरणों में अलग अलग दण्डवत् प्रणाम की। श्रेष्ठ राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और मुनि लोग भी राजा को देखकर प्रसन्न हो बोले कि, हम प्रसन्न हैं। जो तेरे मन मे हो वो अब मांग ले,यह सुन राजा ने कहा कि, महाराज तपेश्वरी आप लोग भी कौन हो,क्या नाम है, तथा यहां क्यों और किसलिये एकत्रित हुए हों। यह यथार्थ रुट से कहिये। मुनियों ने उत्तर दिया, हे राजन्! हमलोग विश्वेदेवा हैं, स्नान के वास्ते यहां आना हुआ है। माघ निकट आ गया है और आज से पांचवें दिन लग जायगा, आज पुत्रदा नाम की एकादशी है। यह शुक्ला पुत्र की इच्छा करनेवाले लोगों को पुत्र प्रदान करती है। राजा ने कहा कि, महाराज मुनिराज! मेरे भी पुत्र के उत्पन्न करने के लिए महान् प्रयत्न है। यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे भी पुत्र दे दीजिये। मुनि बोले कि, हे राजन्। आज ही पुत्रदा एकादशी है इसलिए तुम्हारे घर में इसके उत्तम व्रत के करने से भगवान् की कृपा से तथा हमारे आशीर्वाद से अवश्य पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुन राजा ने उनके वचनों से व्रत किया। द्वादशी के दिन राजा ने पारणा की,पीछे मुनियों को प्रणाम कर घर आया ,रानी गर्भवती हो गई।
उस राजा के घर मे मुनियों के वचन से और इस पुत्रदा एकादशी नाम की कृपा से बड़ा तेजस्वी और पुण्यात्मा पुत्र समय पर उत्पन्न हुआ।। उसनें पितृगणों का सन्तोषकर प्रजा की पालना की। इसलिए हे राजन ! पुत्रदा का व्रत करना चाहिए।
मैने तुम्हारे सामने लोकहित की कामना से इस पुत्रदा नाम की एकादशी की कथा का वर्णन किया है। जो मनुष्य इस पुत्रदा नाम का व्रत करते हैं वे इसके करनेवाले इस लोक में पुत्र पाकर अन्त मे स्वर्ग मे जाते हैं। हे राजन्! पढने और सुनने से अश्वमेध का फल प्राप्त होता है।
यह भविष्योत्तर पुराण का कहा हुआ पौष शुक्ला एकादशी के व्रत का माहात्म्य पूरा हुआ।।