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माघ कृष्ण एकादशी ( षट्तिला एकादशी) २८/०१/२०३२ शुक्रवार
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अथ माघकृष्णा एकादशी की कथा- दालभ्य ऋषि बोले कि, मर्त्सलोक मे आये हुए जीव तो पाप करते हैं ब्रह्महत्यादि महापातक तथा दूसरे दूसरे और पापों से भी घिरे रहते हैं। चोरी और व्यभिचार मे लगे रहते हैं पर हे ब्रह्मन् नरकों को क्यों नहीं आते। यह यथार्थ रुप से कहिये। जिस छीटे से दान से वा पुण्य से पाप शान्त हो जाँय। हे भगवन्! उसे मुझसे कहिये। पुलस्त्य बोले कि, बहुत अच्छा बहुत अच्छा ,हे महाभाग! यह बड़ा ही गोपनीय है और सुतरां दुर्लभ है यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश किसी ने भी किसी से नहीं कहा।
उसे अब मैं आपको सुना दूंगा, आप सुनें, पौष का महीना आने पर जितेन्द्रिय मनुष्य पवित्र होकर स्नान करें। काम क्रोधादि विकारों का परित्याग करे ईर्ष्या और पिशुनता का त्याग करें, भगवान् को स्मरण कर हाथ पाँव का प्रक्षालन करें। पुष्प नक्षत्र के साथ उसमें गोबर लेकर उसमें तिल और कपास मिला पिण्ड बनालेना चाहिए। १०८ होम हो इसमें विचार न करना चाहिये। माघ मास के आ जाने पर यदि आषाढ़ नक्षत्र हो अथवा मूल नक्षत्र हुए ,कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन नियम ग्रहण करें, उसके पुण्य फल के देनेवाले विधान को मुझसे सुनो। यतात्मता के साथ स्नान करके पवित्र हो भगवान् का पूजन करे एकादशी मे उपवास कर भगवान् के नामों कीर्तन करता हुआ। रात को जागरण करे एवं होम भी उसी समय करें, दूसरे दिन देवादेव भगवान् का फिर पूजन करें। बारबार कृष्ण नाम से स्तुति करके इन चन्दन,अगर और कर्पूर के साथ केसर का नैवेद्य दे। कूष्माण्ड और नारियल से अथवा बिजोरे से या सबके अभाव में तो हे विप्रेन्द्र बढिया सुपारी से ।
भगवान् जनार्दन की पूजा कर अर्ध्यदान करे कि ,हे कृष्ण! हे कृष्ण आप कृपालु हैं अतः जिनकी कोई गति नहीं है उनकी गति बन जाईये। हे परमेश्वर! हम संसार सागर में डूबे हुएं हैं हमारा उद्धार कर दे। हे पुण्डरीकाक्ष! तेरे लिये नमस्कार है, हे जगत्पते!आप लक्ष्मी के साथ अर्ध्य ग्रहण करें।और अन्त मे ब्राह्मण की पूजा कर उसको भरा हुआ घड़ा छत्र और जूती जोड़ा, देकर ‘ कृष्णो मे प्रीयतां’ पद का उच्चारण करे।हे द्विजोत्तम द्विजश्रेष्ठ!बुद्धिमान को चाहिए कि, साथ ही काली गौ तथा तिल का पात्र भी यथाशक्ति दे। हे मुने! स्नान मे और भोजन मे सफेद तिलों का व्यवहार करना चाहिए। हे द्विजोत्तम!शक्ति के अनुसार उन्हीं को दे भी। तिलदान करनेवाला मनुष्य उतने हजार वर्ष पर्यंन्त स्वर्ग में निवास करता है।
जितना कि, उन तिलों से उत्पन्न होने वाले खेंतों मे तिल पैदा होते हों। तिलों से स्नान उबटन और होम तिलों का ही पानी तिल भोजन और तिलों का ही दान करना। इस प्रकार तिलों से ये छः काम होने के कारण यह षट्तिला नाम की एकादशी होती है। यह पापों को दूर करनेवाली है।
नारदजी बोले कि, हे विशालबाहो कृष्ण! आपको प्रणाम है। षट्तिला एकादशी को करनेवाला प्राणी कैसा फल पाता है?
इसको आप कथा सहित वर्णन कीजिए, यदि मुझ पर प्रसन्न हो तो। श्रीकृष्ण जी बोले कि, हे नारद! जैसी मैंने देखीं वैसी ही इसकी कथा मैं तुम्हें वर्णन करता हूं इसे तुम सुनो। हे नारद !प्राचीनकाल में मर्त्यलोक के अंदर एक ब्राह्मणी थी,वो सदा व्रतों और भगवान् की पूजा किया करती थी। प्रत्येक मास के उपवासों को करती थी, मेरी भक्ति से मेरे उपवासों को भी किया करती थी, मेरी पूजा मे लगी रहती थी।जिसने अपना शरीर नित्य ही उपवासों के करने से ,गरीब ब्राह्मणों और कुमारियों की भक्ति से क्षीण कर लिया था । वह परम बुद्धिमती अपने गृह आदि सभी वस्तुओं को प्रदान करती रहती थी। इस प्रकार हे नारद ! सदा वह कष्ट उठाती रहती थी। उसने ब्राह्मणों को अन्नदान से प्रसन्न किया पर देवताओं को प्रसन्न नहीं किया।तब बहुत दिनके बीत जाने पर मैंने सोचा कि इसका शरीर वास्तव में कष्टोंपवास से शुद्ध हुए गया है। इसमें संदेह नहीं है, इसने अपने कायक्लेश से वैष्णव लोक को प्राप्त कर लिया है, किन्तु इसने अन्नदान नहीं किया जिससे मेरी पूर्ण तृप्ति होती।
हे ब्राह्मण! यह विचार कर मैं मर्त्सलोक को चल दिया। एक कपाली का रुप धारण कर पात्र से भिक्षा मांगने गया। ब्राह्मणी बोली कि ब्राह्मण! कैसे पधारना हुआ? सो मेरे आगे सत्य सत्य बताइये। मैंने फिर भी’हे सुन्दरी!भिक्षा दे यह वचन कहा, तब उसने बड़े पक्रोध से साथ एकता मे के बर्तन में,मिट्टी का पिण्ड फेंका। हे ब्राह्मण!इतने मे मैं स्वर्ग चला गया इसके बाद वो महाव्रत वाली तापसी बहुत समय के बीत जाने पर देहसहित स्वर्ग लोग चली गईं इसी व्रतचर्य्या के प्रभाव से। मिट्टी के पिण्डदान के फल से वहां सुन्दर घर मिला। लेकिन उसका घर अन्नकोष से खाली था। घर मे जाकर उसने जब कुछ न देखा तब वह फिर मेरे पास आई। उसने क्रोध में आकर यह वचन कहा कि मैंने इतने कठिन अनेक उपवासों से व्रतों से और पूजा से सर्वलोक हितकारी जनार्दन भगवान् की पूजा की। तो भी मेरे घर में हे जनार्दन!कुछ नहीं मालुम होता। तब मैंने कहा तू फिर जैसे आई है वैसे ही अपने घर जा। तुमको देखने के लिए दिव्य रुपधारिणी अनेक देवपत्नी कुतूहल के साथ आयेंगी। तुम उनको विना षट्तिलो की पुण्य कथा के अपना दरवाजा न खोलना, जितने समय के बाद वो तापसी मानुषी अपने घर पर आई,इसी बीच मे उसके घर पर उसके दर्शन करने के लिए देवस्त्रियां आ उपस्थित हुई।
देवपत्नियों ने कहा कि, हम आपको देखने के लिए आईं हैं। हे शुभ मुखवाली! द्वार खोल,तुझे देखना चाहतीं हैं। मानषी ने कहा- यदि तुम मुझे वास्तव मे ही देखना चाहतीं हो तो मैं अपना द्वार तब खोलूँगी जब कि,षट्तिला व्रत का पुण्य तुम मुझे करोगी। कोई न बोली कि, मैं षट्तिला एकादशी के पव्रत को दूंगी पर उनमें से एक ने कहा कि, मैं तो इसे अवश्य देंखूंगी। तब उन सबने द्वार खोलकर देखा कि उसके अंदर एक मानुषी बैठी हुई है। जो न गन्धर्वी हैं, न आसुरी और पन्नगी है। जैसे पहले एक मानुषी स्त्री देखी थी वही यह है। देवियों के आदेश से उसने षट्तिला का व्रत किया। यह मुक्ति भुक्ति का देने वाला था, मानुषी सत्यव्रतवाली थी,रुप कान्ति से युक्त होकर क्षणभर मे पा गयीं। धन,धान्य,वस्त्रादि, सुवर्ण,रौप्य इनसे घर भर गया यह सब षट्तिला का ही प्रभाव था? न तो अत्यन्त तृष्णा ही करे; और न कृपणता ही करे। अपनी यथाशक्ति तिल व वस्त्र आदि दान करे। इसके प्रभाव से जन्म जन्म में आरोग्य मिलेगा, न कभी दारिद्रय, कष्ट और दुःख ही होगा। इस प्रकार विधिपूर्वक तिल दान करने से उसके सब पाप नष्ट होते हैं। इसमें जरा भी संदेह न करना चाहिए। हे द्विज! इस षट्तिला के उपवास के बराबर कोई श्रेष्ठ नहीं है।
यह भविष्योत्तर पुराण का कहा हुआ षट्तिला ना की एकादशी का माहात्म्य पूरा हुआ।