
चैत्र शुक्ल एकादशी→”कामदा एकादशी”
१२ अप्रैल २०२२ मंगलवार द्वारा श्रीवाराहपुराण
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अथ चैत्रशुक्लैकादशी कथा- युधिष्ठिर जी बोले कि हे- वासुदेव! आपको नमस्कार है। चैत्र मास की शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है, इसको आप कृपाकर बतलाइये। श्रीकृष्ण जी महाराज बोले कि, हे राजन ! एकमन होकर इस प्राचीन कथा को सुनो,जिसको वसिष्ठ जी ने दिलीप के वास्ते वर्णन किया था।
दिलीप बोले कि, महाराज चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? इसको आप प्रसन्न होकर मुझको वर्णन कीजिए। वशिष्ठ जी महाराज बोले कि, हे राजन! आपने बड़ी उत्तम बात पूँछी है इसको मैं प्रसन्न होकर कहता हूं कि, चैत्रमास कि शुक्ल एकादशी का नाम*कामदा* है। हे राजन्! यह एकादशी बड़ी पवित्र है। ताप रुपी इन्धन के वास्ते दावानल है।इस पापहारिणी और पुत्रदायिनी कथा का श्रवण करो।
प्राचीन काल में नानारत्नों से और सुवर्णो से भूषित भोगिपुर नाम के नगर में जिसमें कि,पुण्डरीक आदि बड़े बड़े मत्तहाथी निवास करते थे। उस नगर में पुण्डरीक नाम के राजा राज्य करते थे। जिसकी सेवा गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएं करती रहतीं थी। उस पुर मे ललिता नाम की अप्सरा और ललितनामक गन्धर्व दोनों काम के वशीभूत होकर बड़ी प्रीति रखते थे। वे दोनों स्त्री-पुरुष अपने धन धान्य सम्पन्न घर मे आनंद से रमण करते थे। पति के हृदय मे सदा ललिता का निवास था और ललिता के हृदय मे सदा पतिदेव निवास करते थे। एक समय यहां पर किसी सभा मे पुंडरीक आदि लोक आदि क्रीडा करते थे। और ललित अपनी प्रिया ललिता के बिना गायन कर रहा था। उसका अपनी प्यारी स्त्री के स्मरण से गाने के समय जीभ के लड़खड़ा जाने के कारण पदभंग होने लगा। कर्कोटक नागराज ने उसके मन की बात ताड़कर उस असंगत संगीत की ओर और उसके पदभंग की पुंडरीक राजा के आगे चर्चा की। तब उस राजा पुंडरीक के क्रोध से रक्त नेत्र हो गये।और मदनांध ललित को शाप दे दिया, और कहा कि, हे दुर्बुद्धे तू राक्षस होगा। माँस और मनुष्य का भक्षण करेगा। क्योंकि तू मेरे आगे गाता हुआ कामांध हुआ है। उसके वचन से गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर आँखें और मुख हो गया जिसके कि- देखने से ही डर मालूम होता था। जिसका मुख कन्दरा के समान और बाहू चार कोस के बराबर हो गई। चंद्रमा और सूर्य के समान नेत्र बने और ग्रीवा पर्वत के तुल्य हुई। नाक के छेद बड़े बिबर के तुल्य थे। और ओष्ठ दो कोस के थे ।
उसका सारा शरीर हे राजन् ३२ कोस का था। वह अपने कर्मो को भोगने के लिए ऐसा राक्षस हुआ। ललिता ने उस अपने बदसूरत पति को देखा। उसको बड़ी चिंता हुई कि अब मैं क्या करु? कहाँ जाऊं? पतिदेव शाप से दुखी है। यह सोचकर उसको दुःख हुआ ,किंचित भी सुख न पा सकी और वह भी पति के साथ ही साथ जंगल में भ्रमण करने लगी। उस कामरुप राक्षस को घृणा शून्य मन से पाप और नरभक्षण करते वन मे घूमते हुये न रात में सुख मिलता और न दिन में । इस प्रकार अपने पति को देखकर ललिता बड़़ी दुखिनी हुई। उसके साथ घूमती रोती हुई कभी वह इसी तरह विन्ध्याचल शिखरों मे चली गई। वहां ऋष्यश्रृंग मुनिका आश्रम जानकर शीध्र ही बड़े आदर के साथ उस जगह नम्रता से नवी हुई आ उपस्थित हुई। मुनिराज ने उसको देखकर प्रश्न किया कि हे शुभे! तू कौन है और किसकी लड़की है? इस आश्रम मे किस वास्ते आई है इसको मेरे सामने सत्यरुप से वर्णन कर? ललिता बोली कि, महाराज! मैं वीर धन्वानामक गंधर्व की लड़की हूं, मेरा नाम ललिता है और इस जगह अपने पति के लिए आई हूं। हे महामुने! मेरा पति शापदोष से राक्षस हो गया है। उसका रुप भयंकर है। उसका पतित आचार है, इसलिये उसे देखकर मुझे कुछ सुख नहीं होता है। इसलिये महाराज! आप मुझे आज्ञा दीजिये कि, मैं क्या प्रायश्चित करु जिससे मेरा पति राक्षस की गति से मुक्त हो जाय। ऋषि जी बोले कि, हे सुन्दरि; इस समय चैत्रमास की शुक्ला एकादशी का दिन है उसका नाम सब इच्छाओं को पूर्ण करने के कारण *कामदा* है।हे सुन्दरि! तुम उस व्रत को मेरी कही हुई वाधि के अनुसार करो और उस व्रत का पुण्य तुम अपने पति को अर्पण कर दो। उसके देने मात्र से पति के शाप दोष की शान्ति हो जायेगी। इस वचन को सुनकर ललिता बड़ी प्रसन्न हुई। हे राजन ! एकादशी का उपवास करके वह द्वादशी के दिन भगवान वासुदेव और ब्राह्मण के निकट बैठकर अपने पति का उद्धार करने के लिये ये वचन बोली कि, हे भगवान! मैंने जो यह व्रत किया है और कामदा का उपवास किया है वो पति के उद्धार के लिये किया है। उसके पुण्य प्रभाव से मेरे पति की पिशाचता का दोष दूर हो । ललिता के ऐसे बोलते ही वह उसी समय निष्पाप होकर राक्षसता से निर्मुक्त हो, दिव्य रुप धारण करके फिर से गन्धर्व हो गया । उसने फिर पूर्व की भांति हेमरत्न आदि से युक्त होकर ललिता के साथ रमण किया और पहले से भी अधिक सुन्दर रुप धारण करके वे दोनों विमान पर सवार हो गये। दोनों स्त्री पुरुष इस कामदा के प्रभाव से बड़े सुखी हुए । यह जानकर बड़े परिश्रम और कष्ट से इस व्रत को सम्पादित करे। यह ब्रह्म हत्या आदि पापों को नाश करने वाली तथा पिशाचत्व को दूर करनेवाली इस एकादशी की कथा का वर्णन लोक हित की कामना से तुम्हारे सामने किया है। चर अचर सहित इस संसार मे इससे अधिक उत्तम और कोई एकादशी नहीं है। इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त होता है।
यह श्रीवाराहपुराण का कहा हुआ चैत्र शुक्ल *कामदा* नाम की एकादशी का माहात्म्य पूरा हुआ।