
कर्मफल ( भाग २६)
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” न हि मानुषात् परतरं हि कश्र्चित् “
मनुष्य से श्रेष्ठ दूसरा कोई कहीं किसी लोक में नहीं है
लेकिन क्या द्विपाद प्राणी का नाम ही मनुष्य है ?
देवता तथा दूसरे पुण्यलोको के सब प्राणी क्षयोन्मुख हैं ।वे अपने पुण्यों का भोग करके उन्हें क्षीण कर रहे हैं । वे वहाँ से नीचे गिरने के मार्ग पर हैं ।उनकी अवनति ही होने वाली है।
पशु पक्षी और वृक्ष ही नहीं, नारकीय प्राणी भी ऊर्ध्व मुख हैं। वे प्रगति के मार्ग पर हैं। वे अपने पापों अशुभ कर्मो को भोगकर क्षीण कर रहे हैं ।वे विकासोन्मुख हैं। उनकी उन्नति ही होने वाली है।
मनुष्य कहाँ है- यह उसे स्वयं देखना है। वह जो कुछ करेगा, कर्मयोनि का प्राणी होने के कारण उसको उसका फल भोगना है। वह शुभकर्म करता है तो उत्थान के मार्ग पर है- देवताओं से भी श्रेष्ठ है । देवत्व ही नहीं, मोक्ष भी उसका प्राप्य बन सकता है। यदि अशुभ कर्म करता है तो वह पतन की ओर जा रहा है। नरक और पशुत्व उसके भाग्य में है। जो केवल खाने पीने तथा अन्य भोगों को जुटाने मे लगा है ,वह कितना भी बड़ा विद्वान- बुद्धिमान हो, वह ‘ द्विपाद पशु ‘ ही है। वह नीचे ही जा रहा है।
कर्म का फल ऊपर-नीचे या पृथ्वी पर , कहीं भी होता हो,कर्म रुपी वृक्ष के उगने, पोषण पाने का स्थान पृथ्वी ही है।
देवता, दैत्य या उपदेवता कर्म तो कर सकते हैं; किन्तु तभी जब वे पृथ्वी पर आकर और मनुष्य रुप में रहकर कर्म करें। देवता पृथ्वी पर आकर किसी को वरदान दे जाँय या शाप, इससे उन्हें कोई पाप पुण्य नहीं होता। उनके अपने लोक तो भोग लोक हैं ही।
यही कारण है बलि को यज्ञ करने के लिये पृथ्वी पर आना पड़ा। उन्होंने नर्मदा के उत्तर तट पर अपनी यज्ञशाला बनायी; क्योंकि समस्त लोकों मे सृष्टि कर्ता ने इस धरा को ही कर्मभूमि बनाया है। दूसरे सभी लोक तो भोगभूमि हैं।
यहीं हुए शुभ या अशुभ कर्मो का भोग दूसरे लोको मे कर्ता को मिलता है; जैसे वृक्ष की जड़ पृथ्वी में ही रहती है, पृथ्वी के रस से ही वह बढ़ता-फलता है। अतः आप मनुष्य हैं, पूर्ण भूमि भारत में है, देव भूमि भारत मे निवास करते हैं। इसलिए अभिनव कर्म करें ,