1,055 total views, 2 views today

“माघ शुक्ल एकादशी”
इस एकादशी का नाम ‘जया’ है।सब पापों को नष्ट करने वाली, सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाली और मोक्ष को देने वाली है। यह बड़ी पवित्र है, ब्रह्म हत्या के पाप को मिटाने वाली और पिशाच गति को रोकने वाली है।इसका व्रत करने से कभी प्रेतयोनि नहीं प्राप्त होती। इससे अधिक उत्तम पापनाशिनी और मोक्षदायिनी कोई भी एकादशी नहीं है। इसलिए बड़े यत्न से इसे करें।
पद्य पुराण मे इसकी शुभ कथा का वर्णन है:-एक समय स्वर्ग लोक में इन्द्रदेव राज्य करते थे। इनके शासन में देवतागण सुन्दर स्वर्ग में बड़ा सुखभोग कर रहे थे। सदा अमृतपान करना और अप्सराओं का भोग करना उनका प्रधान काम था। उस जगह परिजात नाम के स्वर्गीय वृक्षों से शोभित नन्दन वन भी था।जहां देवता अप्सराओं के साथ रमण करते थे। हे राजन ! एक समय यह इन्द्र जब कि अप्सराओं से रमण कर रहा था, तब हर्षातिरेक से उसने पचास करोड़ वेश्याओं का नृत्य कराया, गन्धर्व लोगों का गाना हुआ। प्रसिद्ध गायनाचार्य गन्धर्वराज पुष्पदंत तथा चित्रसेना नाम की अपनी पुत्री के साथ चित्रसेन भी वहीं उपस्थित थे।इस चित्रसेन गन्धर्व की स्त्री का नाम ‘मालिनी’ था। जिससे पुष्पवान नाम का लड़का उत्पन्न हुआ इस पुष्पवान के माल्यवान पुत्र हुआ। इस माल्यवान पर एक पुष्पवती नामकी गन्धर्वी मोहित हो गयीं थी। उसके ही मारे कामदेव के तीक्ष्ण वाणों से घायल हो गई। उसके भावकूट कटाक्षों से एवं रूप लावण्य की संपत्ति से माल्यवान भी उसके वशीभूत हो गया उसका लावण्य और रूप सौन्दर्य में उसकी भुजाएं कामदेव के साक्षात् कंठपाश थे। मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर और आँखें कानों तक लम्बीं थी। कान कुंडलों से सज रहे थे। गले मे हार तथा दूसरे अनेक प्रकार के अलंकारों से सुंदरता बढ़ रही थी।। क़ठ कंठभूषा और दिव्य आभूषणों से सज रहा था। उसके पुष्ट और ऊपर उठे हुए स्तन स्वर्ण कलश जैसे मालूम होते थे। उदर बहुत पतला तथा मध्यभाग मुष्टिप्रमाण था। विशाल नितम्ब और जघनस्थल बहुत विस्तृत था।उसके चरण रक्त कमल जैसे सुंदर थे।
ऐसी पुष्पवती पर माल्यवान भी मोहित हो गया। वे लोग इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए नाचने और गाने के लिए आए थें।जिस समय वे दोनों अर्थात माल्यवान और पुष्पवती अप्सराओं के साथ गा रहे थे तब उनका कामोन्माद के कारण गाना शुद्ध नहीं हो पाता था ऐसा मालुम होता था मानो उन्हें चित्त भ्रम हो गया हो। एक दूसरे को दृष्टि लगाकर देख रहे थे। दोनो काम बाणों के वशीभूत हो चुके थे, इस समय इन्द्र ने उनके मन के भाव को जान लिया कि इनका मन मिल चुका है। और इसके कारण अपने अपमान से तथा सामयिक क्रियाओं के लोप से और गायन भंग से कुपित होकर यह शाप दिया कि, हे नालायको! तुमने पापगत हो मेरी आज्ञा को भंग किया है, जाओ चले जाओ,तुम्हें धिक्कार है। तुम दोनों स्त्री पुरुष के रुप से ही मर्त्य लोक मे जाकर पिशाच योनि मे अपने कर्मो का फल भोगों। इस प्रकार इन्द्र के शाप से दुखी होकर वे दोनों शाप मोहित हो हिमवान के निकट गये। दोनों उस शाप के प्रभाव से पिशाच योनि और दारुण दुखों को प्राप्त हो गये। दोनों का। हृदय संतप्त रहने लगा वे महाकष्ट पाने लगे। तम के बढ़ जाने से गंध,रस,और स्पर्श का ज्ञान नष्ट हो गया, देहांत करनेवाले दाह से पीड़ित हो गये। उन्हें कर्म के प्रभाव से कभी निद्रा का सुख नहीं मिला किन्तु एक दूसरे को खाते हुए वे लोग पहाड़ों के दर्रों मे चले गये। जाड़े के शीत से पीडित हो दातों को रगड़ते हुए रोमान्चित शरीर से दिन बिताने लगे। उनमें से एक दिन पिशाच ने अपनी पिशाची स्त्री से शीत के दुःख में मे कहा कि, हम लोगों ने कौन सा ऐसा दुखदायक कर्म किया है? जिस बुरे कर्म से हमें यह नरक रुप पिशाच योनि की प्राप्ति हुई है। मैं इस निन्दित पिशाच योनि को दारुण नरक मानता हूं। इसलिए अब कभी हमें कोई पाप किसी तरह भी नहीं करना चाहिए वे इस चिन्ता में दुःख के सताएं हुये रह रहे थे। दैव योग से इसी अवसर में माघ महीने की जया नामिका शुक्ला एकादशी भी आ पहुंची, जो तिथियों में सबसे उत्तम तिथि है। उस दिन उन्होंने निराहार व्रत किया, जलपान भी नहीं किया इसी तरह रहे आये। वे दोनों एक पीपल वृक्ष के नीचे पड़े रहकर उस एकादशी के दिन जीवहत्या और फल भक्षण का भी त्याग कर दिया और दुःखी रहे आये। उन्हें इस तरह रहते हुए सूर्य भी अस्त हो आये थे अत्यंत घोर शीतकारिणी एवं दुख पहुंचाने वाली रात भी आ गई। वे दोनों वहां सर्दी के मारे जड़ होकर काँपने लगे। एक दूसरे से शरीर से शरीर लिपटकर पड़े रहे। न उन्हें निद्रा मिली,न रति और सुख ही मिला, इन्द्र के शाप से उन्हें इस प्रकार का दुःख हुआ। इस प्रकार से रात्रि समाप्त हुई। जया एकादशी का व्रत भी साथ ही जागरण सहित पूरा हो गया। इस जया एकादशी का फल द्वादशी के प्राप्त का होने पर उन्होंने व्रत का परायण किया। व्रत के प्रभाव से भगवान विष्णु की कृपा से उनका पिशाचपना नष्ट हो गया। वे दोनों पुष्पवती और माल्यवान पहले के रुप को धारण करते हुए अपने पुराने प्रेम से युक्त हो अप्सराओं के साथ पुराने अलंकारों से अलंकृत होकर अप्सराओं से सेवित हो विमानपर सवार हो गये, इस प्रकार वे दोनों फिर उस सुंदर स्वर्ग पहुंचे। उन्होंने इन्द्र के आगे प्रसन्न होकर प्रणाम किया । इन्द्र भी उन्हें पूर्व रुप मे देखकर विस्मित हुआ बोला कि हे गन्धर्वों यह बतलाओ कि किस प्रकार पिशाच योनि से मुक्ति मिली, मेरे शाप का मेरे चन किस देवता ने किया? माल्यवान बोला कि हे देवराज! भगवान वासुदेव के प्रभाव से और जया एकादशी के व्रत से यह पिशाच योनि नष्ट हुई है। यह वचन सुनकर इन्द्र के उत्तर दिया कि अब तो तुम लोग भीबड़े पवित्र और मेरे भी वन्दनीय हो गये हो,इसलिए तुम अब पुष्पवती के साथ स्वर्ग में में आनन्द से इच्छापूर्वक भोग करों।
अतः जया एकादशी का व्रत अवश्य ही करना चाहिए यह ब्रह्म हत्या के दोष कोभी नष्ट करने वाला है। जो श्रद्धा पूर्वक इस व्रत को करता है वह कल्पकोटि पर्यन्त निश्चय करके वैकुण्ठ मे आनन्द करता है। इसकी कथा को श्रवण करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
इस कथा का वर्णन भविष्योत्तर पुराण मे भी है।