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मेरे दिमाग में बचपन में जो प्रश्न बार बार उठते थे कि
(१) पहला प्रश्न था कि सृष्टि की शुरुआत की शुरुआत और शुरुआत मे अर्थात जब भी शुरुआत हुई होगी तब तो सब जीवात्माएं सामान गुण वाले पुण्यात्मा ही होगें, पापी होने का सवाल ही नहीं क्योंकि अभी जस्ट स्टार्ट है।
दूसरा इसी बात को बल मिला रामचरित मानस की यह चौपाई पढ़कर – “ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि ।।” यहां भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि-” जीव ईश्वर का अंश माना गया है, फिर पाप के धर्म जीव मे कहाँ से आये?”
दूसरा प्रश्न यह था कि क्या हर बार आदमी आदमी बनेगा और स्त्री स्त्री के ही रुप मे जन्म लेंगी। अर्थात क्या योनि परिवर्तन होता है?
इसका उत्तर आपके सभी के लिए जो सत्य की तलाश में है लिख रहा हूँ-
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।।
(कठोपनिषद २/१/१४)
महर्षि कठ कहते है भूतल पर बड़ा पर्वत है, पर्वत पर एक किला है, किले पर आकाश से वृष्टि होती है। मेघ का शुद्ध जल किले पर आते ही पर्वत की कंदराओं में आता हुआ खण्ड खण्ड रुप में परिणत होता हुआ किले की और पर्वत की मलिनता से मलिन हो जाता है। यही अवस्था यहाँ है। वे ईश्वरीय गुण शरीररुप भूपिण्ड पर स्थित प्रज्ञान रुप किले में आकर ,पर्वत के अवयवस्थानीय संस्था में आकर ,प्रज्ञा के अपराधरुप मल से मिले हुए पापरुप में परिणत हो जाते हैं । ईश्वर के समान जीव भी बिलकुल विशुद्ध है; ईश्वर के जो गुण जींव मे आते हैं, वे भी विभूतिरुप ही हैं, परन्तु मन के अपराध से वे ही गुण दोषरुप में परिणत हो जाते हैं।
जिस प्रकार ब्रह्म अमल है।यानि मल रहित है। उसी प्रकार जीव भी अमल है, यानि मल या विकार रहित है।जीव जब भी ब्रह्म से उसके अंश के रुप मे धरती पर आता है, तो वह अपने मूल की ही तरह अमल एवं विकार रहित होता है। ठीक उसी तरह जैसे पानी की बूंद बादल से अलग होती है तो एकदम शुद्ध होती है। पर धरती पर स्पर्श होते ही मटमैली हो जाती है।उसी तरह जीव के भी धरती पर आते ही माया उससे लिपट जाती है।
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जिम जीवहि माया लिपटानी।।
दूसरे प्रश्न का उत्तर जल्दी ही आपको मिलेगा।