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भाद्रशुक्ला एकादशी= वामन एकादशी
जयंती एकादशी = परिवर्तनी एकादशी
पदमा एकादशी = जलझूलनी एकादशी
माहात्म्य कथा द्वारा- श्री स्कन्द पुराण
दिनांक → १७/०९/२०२१/डोल ग्यारस
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अथ भाद्रशुक्ला एकादशी की कथा- युधिष्ठिर बोले कि, हे भगवान! भादवेके शुक्लपक्ष में आने वाली एकादशी का क्या नाम है उसका देवता और पुण्य क्या है तथा उसकी क्या विधि है? इसको आप विस्तृत वर्णन कीजिये।
श्रीकृष्ण जी महाराज बोले कि, हे युधिष्ठिर! मैं तुम्हें महापुण्य फल को देनेवाली वामन एकादशी की स्वर्ग मोक्ष दायिनी कथा का वर्णन करता हूँ। हे राजन ! इसी एकादशी को जयंती भी कहते हैं, जिसके श्रवण मात्र से सब पापों का क्षय होता है। पापियों का पाप नाश करने और मोक्ष देने में इससे उत्तम कोई दूसरा व्रत नहीं है। इसलिए मेरे में लगे रहने वाले वैष्णव भक्तों को शुभगति प्राप्त करने के वास्ते यह व्रत करना चाहिये। भाद्रपद में जिसने वामन भगवान की पूजा की उसके तीनों जगत् की पूजा की और वे निःसंदेह वैकुण्ठ मे चले जाते हैं। भाद्र शुक्लपक्ष मे जिसने कमल नयन वामन भगवान की कमलों से जयंती एकादशी के दिन पूजा की। उसके पशद्वारा तीनों जगत् तथा तीनों सनातन देवों की पूजा होती है, इसलिये इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इसके करने पर फिर कुछ करना बाकी नहीं रह जाता, क्योंकि इस दिन शयन करते हुए भगवान अपनी करवट बदलते हैं। इसलिये इसको लोक परिवर्तनी भी कहते हैं।
युधिष्ठिर जी बोले कि, हे भगवान जनार्दन! मुझे बड़ा संशय है उसको सुनिये। हे देवदेव! आपने क्यों शयन किया और करवट बदली और क्यों आपने बलि असुर को पकड़ा है? चातुर्मास्य के व्रत करने वालों को इसकी विधि का वर्णन करो। हे जनार्दन! ब्राह्मणों ने संतुष्ट होकर क्या किया सो भी कहो।। हे प्रभो! आपके सो जाने पर मनुष्य क्या करते हैं? इसको आप विस्तार से कहकर मेरा संशय दूर करो।
श्रीकृष्ण जी बोले कि, हे राजन! आप इस पापहारिणी कथा का श्रवण करो, त्रेतायुग में बलि नामक एक पवित्र दानव हुआ था।। वह मेरा भक्त मेरी भक्ति में परायण होकर अनेक जपतपो से मेरी नित्य अर्चना करता था। सदा ब्राह्मणों का पूजन करने वाला तथा नित्य ही यज्ञकर्म को करनेवाला था। किंतु इन्द्र के द्वेष से उसने देवलोक भी जीत लिया।। जब उस महात्मा ने मेरे दिये हुए इस देवलोक को भी जीतलिया तब सब देवताओं ने मिलकर सलाह की कि, भगवान् के पास हम सब लोगों को यह सूचित करने के लिये जाना चाहिये। तब देव और ऋषियों को साथ लेकर इन्द्र मुझ प्रभु के पास आया।। उस पृथ्वी पर जाकर इन्द्र ने शिर से स्तुति की तथा बृहस्पति वा अन्य देवताओं के साथ मेरी अनेक बार पूजा की।। तब मैंने पन्चम वामन रुप से अवतार लिया।। जो बहुत भयंकर तथा ब्रह्माण्डरुपी ही था।तबसे सत्य वादी उसको मुझ बालक ने जीत लिया यह बात प्रसिद्ध हुई।।
युधिष्ठिर जी बोले कि महाराज! आपने वामन रुप धरकर किस प्रकार उस असुर को जीता। हे देवेश! इसको आप विस्तार से मुझ भक्त को वर्णन करिये। श्रीकृष्ण जी बोले कि, उस बलि से मैनें बालक का रुप धारण कर यह मिथ्या प्रार्थना की, कि हे राजन्! आप बड़े दानी हैं इसलिये आप मुझे तीन कदम भूमि का दान करो उससे तीनों लोक दिये हो जायेंगे इसमें विचार न करियेगा।। इतना सुनकर उसने मुझे त्रिपदा भूमिका दान किया। मेरा त्रिविक्रम शरीर संकल्प मात्र ही से बढ़ने लगा। भूलोक मे चरण, भुलर्लोक में गोडेऔर स्वर्लोक मे कटि को रखकर महर्लोक मे उदर धारण किया। जनोलोक मे हृदय, तपोलोक मे कंठ, सत्यलोक मे मुख ,स्थापित कर ऊपर की ओर शिर किया। चाँद,सूर्य, सारे ग्रह,तारागण,इन्द्र, देव शेषादिक नाग,इन सबने अनेक प्रकार की वैदिक स्तुतियों से मुझे भगवान की अनेकों प्रार्थनाएँ की। तब मैनें बलिका हाथ पकड़कर यह कहा।। कि राजन! एक पैर से मैनें पृथ्वी और दूसरे से ऊपर के लोक रोकलिये। हे अनघ! अब तुम तीसरी कदम भूमि के वास्ते मुझे और स्थान दो। यह सुध राजा बलि ने मेरे तीसरे पैर की भूमि की जगह अपना मस्तक आगे कर दिया। तब मैने उसके मस्तक पर एक पैर रक्खा।। हे राजन ! उस मेरे भक्त दानव को मैनें पाताल में फेंक दिया, तो भी उसे विनीत जानकर बहुत प्रसन्न हुआ। तब उस मान के देने वाले वैरोचनि बलि को मैनें कहा कि, हे बलि! मैं तुम्हारे निकट निवास करुंगा।। भाद्र शुक्लपक्ष एकादशी के करवट बदलने के दिन मेरी एक मूर्ति बलि का आश्रय लेकर विराजमान होती है। दूसरी मूर्ति, क्षीरसागर में शेष के पृष्ठ पर होती है। हे राजन! जो कार्तिकी की पूर्णिमा तक शयन करती हुई रहती है। इसलिए हे राजन ! महापुण्य पवित्रा और पापहारिणी इस एकादशी का व्रत करना चाहिये। इस दिन सोते हुए भगवान् अपना अंगपरिवर्तन करते हैं, इस दिन त्रिलोकपति भगवान् का पूजन करें।
चाँदी और चावल के साथ दही का दान करें, रात में जागरण करें तो मनुष्य मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार हे राजन! जो भोग और मोक्ष की देने वाली तथा पापनाशिनी एकादशी को करता है, वह देवलोक में जाकर चन्द्रमा के समान शोभित होता है और जो इसकी पापनाशिनी कथा का श्रवण करता है वह मनुष्य सहस्त्र अश्वमेघ यज्ञ के फल को पाता है।
यह श्रीस्कन्धपुराण का कहा हुआ भाद्रपद शुक्ल परिवर्तिनी एकादशी का माहात्म्य पूरा हुआ।।