December 29, 2021

Saphala Ekadashi Vidhi,Katha| All Ekadashi Vrat Katha

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सफला एकादशी ( पौष कृष्ण एकादशी)
३० दिसम्बर २०२१ दिन – गुरुवार
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अब पौष कृष्ण एकादशी- युधिष्ठिर बोले कि, पौष महीने की कृष्ण पक्ष में जो एकादशी है उसकी क्या विधि और क्या नाम है, कौन से देव की पूजा होती है? इसको हे प्रभो!आप कृपाकर विस्तार के साथ बताइये। भगवान बोले कि, हे राजन ! मै तुम्हारे स्नेह के कारण इसे कहता हूँ। मुझे उन यज्ञों से जिन में कि,खूब दक्षिणा दी गई हों कोई खुशी नहीं होती जितनी कि,इस एकादशी के व्रत से होती है। इसलिए हर एक प्रकार से एकादशी का व्रत करना चाहिये। हे राजन्! पौष मास की जो कृष्णा एकादशी होती है। उसके माहात्म्य को आप ध्यानपूर्वक सुनिये। हे राजन ! जो कही हुई एकादशी है, उन सबमें विकल्प नहीं करना चाहिए, इसके बाद पौष कृष्ण एकादशी को कहता हूँ। संसार की कल्याण की कामना से उसकी विधि भी कहूँगा, हे नृपश्रेष्ठ! पौष कृष्ण एकादशी का नाम सफला है। नारायण उसके अधिष्ठाता देव हैं, उसमें उनका प्रयत्न के साथ पूजन होना चाहिये, हे राजन्! पहिले कही हुई विधि से एकादशी व्रत होना चाहिए। नागों मे शेष,पक्षियों मे गरुड,यज्ञों मे अश्वमेघ, नदियों में जाह्नवी, देवों मे विष्णु और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी तरह सब व्रतों में यह एकादशी पव्रत श्रेष्ठ है। भरत श्रेष्ठ! जो मनुष्य सदा एकादशी करते हैं वे मेरे भी पूज्य हैं।।

विधि- अब इस सफला नाम की एकादशी की पूजा विधि सुनिये। इसमें मुझे शुभ ऋतु फलों से पूजे। शुभ देशोत्पन्न नारियल, बिजौरे, अनार,कमला नींबू, लौंग,सुपारी तथा अनेक तरह के आम आदि उत्तम उत्तम फलों को मेरी भेंट करे एवं धूप दीपादि षोडशोपचार से मुझे देवदेवेश भगवान की यथाक्रम पूजन करें। विशेषकर सफला एकादशी को दीप दान करना चाहिये। रात्रि मे प्रयत्न के साथ जागरण करे। उस दिन जागरण करने से हे राजन ! जो फल होता है, उसको एकाग्र मन हो सुनो पर जबतक नेत्रोन्मेष होता है तबतक जगता ही रहना होता है।। हे राजन !उससे अधिक कोई यज्ञ,तीर्थ या उत्तम पव्रत नहीं है, न उसके बराबर ही कोई है। ५००० वर्ष तक तप करने से जो फल प्राप्त होता है वह इस एक सफला के जागरण से ही प्राप्त हो जाता है।

हे राजश्रेष्ठ! उस सफला की कथा सुनो। चम्पावती नाम की प्रसिद्ध नगरी मे माहिष्मत नामक राजा की राजधानी थी। उस राजर्षि के चार पुत्र थे,जिसमें सबसे बड़ा लड़का बड़ा भारी पापी था।। परस्त्रीगामी, ज्वारी तथा वेश्यासक्त था उस पापिष्ठन् अपने पिता के सब धन को नष्ट कर दिया था। देवताओं की ब्राह्मणों की निन्दा करना और कुसंग रहना आदि उसका मुख्य काम था। माहिष्मत राजा ने अपने ऐसे लड़के को देखकर जिसका कि नाम लुम्पक था,उसे राज्य से बाहर निकाल दिया। उसको उसके पिता ने तथा अन्य बन्धुओं ने तथा राजा के डर से उसके सब परिवार ने भी अपने से बाहर कर दिया। सबसे परित्यक्त अकेला लुंपक भी सोचने लगा कि, मुझे सबने छोड़ दिया है अब मैं क्या करु? इस प्रकार चिंता करके उस समय उसने अपनी बुद्धि पाप में की कि, मुझे पिता का पुर छोड़कर वन मे गमन करना चाहिए। मैं उस वन से पिता के पुर मे घुस जाया करुंगा, इस प्रकार रात मे पुर मे और दिन मे जंगल मे रहूँगा। दैव से गिराया गया लुंपक इस प्रकार विचार करके उस पुर से गहध वन मे चला गया। वो रोज ही जीवहत्या और चोरी किया करता था, उस पापीने सारे शहर की चोरी की, जन्मान्तरीय पापों से वो पापी राज्य से भ्रष्ट तो हो ही गया था लोगों ने उसे चोरी करते पकड़ा पर राजा के डर से छोड़ दिया। वो रोज फल और माँस खाकर गुजारा करता था पर उस दुष्ट का आश्रम जो था वह वासुदेव के संमत था। उसमें बहुत वर्षों का पुराना एक जीर्ण अश्वत्थ था उस वन मे उस वृक्ष को बड़ा देवत्व दीखता था। पापी लुम्पक इस प्रकार वहां रह रहा था इसी प्रकार रहते हुए उस पापी को ,दुष्कर्म मे लगे हुए एवं निन्दित कर्म करते हुए पौष कृष्ण सफला के पहले दिन । हे राजन्,शीत से पीडित हो अश्वत्थ के समीप वो लुम्पक निष्प्राणसा हो गया उसे नींद का सुख तो था हीं कहां। दांत से दांत बजते थे ऐसे ही उसने रात बितायी, सूर्य निकलने पर भी उसे चेतना नहीं हुई। होते होते हे राजन्! उसे मध्याह्न का समय हो गया तब चेत नहीं हुआ,जिस दिन वो इस प्रकार बेहोश था उस दिन सफला एकादशी थी। एक मुहूर्त मे उसे संज्ञा हुई तब आसन से उठा लडखडाता पाँगले की तरह बार बार चलने लगा। वन मे था ही भूख प्यास ने व्याकुल किया पर उस दुरात्मा लुम्पक को इतनी शक्ति नहीं थी कि जीव मार ले। सो भूमि पर पड़े हुए फलों को उठाकर जबतक आया तब तक सूर्य देव छिपे गये। हा तातक्ष! आज क्या होगा? ऐसा कह कर दुखी हो रोने लगा, वे सब फल वृक्ष की जड़ मे रख दिया। और कहा कि, इससे भगवान् प्रसन्न हैं जायें वहां ही बैठ गया उस रात को भी नींद न ले सका।

भगवान मधुसूदन उसे अपने व्रत का जागरण माना एवं फलों से सफला के व्रत का पूजन समझा। लुम्पक का अकस्मात उत्तम व्रत कर दिया उसी व्रत के प्रभाव से उसे निष्कण्टक राज्य मिल गया। हे राजन्! उसी पुण्य के अंकुर से जैसे राज्यपाया उसे सुन, सूर्य्य के उदय होते ही एक दिव्य अश्व आ उपस्थित हुआ. उसका लवादमां सबही दिव्य था वो लुम्पक के समीप खड़ा हो गया, उसी समय आकाशवाणी हुई कि, हे राजकुमार! सफला के प्रभाव से भगवान् वासुदेव के प्रसन्न होने से आप अनेक राज्य के निष्कण्टक राजा बनें। तू अपने पिता के समीप जाकर निःसपत्न राज्य का भोग कर आकाशवाणी कहा इस प्रकार कहने के बाद वो लुम्पक दिव्य देहधारी हो गया। कृष्ण मे भक्ति तथा परम वैष्णवी बुद्धि हो गई। अनेक प्रकार के अलंकारों के साथ अपने पिता को प्रमाणकर अपने घर में रहने लगा। पिता ने उस वैष्णव पुत्र को राज्य दे दिया। इस प्रकार उसने अनेक वर्ष राज्य किया। हरिवासर मे उसकी सदा प्रीति रही तथा कृष्ण भगवान की कृपा से उसके स्त्री, पुत्र भी बहुत सुन्दर थे। वह अपनी वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर राज्य को पुत्रपर छोड़ यतात्मा विष्णु भक्ति परायण हो वन मे चला गया। स्वयं भी अंत मे आत्मा को सिद्ध करके विष्णु लोक मे गया; इस प्रकार जो लोग इस सफला नाम की एकादशी का व्रत या जागरण करते हैं। वे इस लोक में यश पाकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करते हैं इसमें सन्देह नहीं है और वे लोग धन्य हैं जो सफला व्रत करते हैं। वे लोग उस जन्म में मोक्ष पाते हैं इसमें सन्देह नहीं है। तथा हे राजन्! इसके माहात्म्य को भी सुनकर के राजसूर्य यज्ञ के फल को पाकर स्वर्ग चले जाते हैं।
यह पौष कृष्णा की *सफला* नाम की एकादशी का माहात्म्य पूरा हुआ।।

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