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आषाढ़ कृष्ण “योगिनी एकादशी”
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द्वारा ― श्रीब्रह्मवैवर्त्तपुराण:-
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एकादशी व्रत तिथि ― ५ जुलाई २०२१ को
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युधिष्ठिर जी बोले कि हे मधुसूदन! यह योगिनी एकादशी का वर्णन आप प्रसन्न होकर मुझसे कीजिये।
श्रीकृष्ण जी बोले कि ,हे राजन्! व्रतों मैं उत्तम व्रत का वर्णन तुम्हारे सम्मुख कहता हूं। सब पापों को नाश करनेवाली मुक्ति और भुक्ति को देने वाली आषाढ़ के कृष्ण पक्ष में ‘योगिनी’ नाम की एकादशी होती है। हे राजश्रेष्ठ! यह एकादशी संसाररुपी समुद्र में डूबने वालों को जहाज के समान और पापों का नाश करनेवाली एवं सनातनी है। हे नराधिप ! तीनों जगत की साररुपा प्राचीन एवं पापहारिणी, इस योगिनी एकादशी कथा का मैं तुम्हें वर्णन करता हूं। शिवपूजा करनेवाले अलका नगरी के स्वामी कुबेर के पास हेममाली नाम का माली का लड़का था। उसकी विशालाक्षी नाम की सुन्दर स्त्री थी। वह कामदेव के वशीभूत होकर उसमें बड़ा स्नेह रखता था।
वह एक दिन मानस सरोवर से पुष्प लाकर अपनी पत्नी के प्रेम से फँसकर घरपर ही रह गया और अपने स्वामी कुबेर के वहां नहीं गया। हे राजन ! कुबेर उस समय देवालय मे बैठकर शिवजी की पूजा करता था। मध्याह्न का समय हो गया थि,पर पुष्प नहीं आये थे। इस कारण उनकी पूरी प्रतीक्षा थी। हेममाली जिसको कि ,पुष्प लाने के लिए कहा गया था, घर पर स्त्री से भोग कर रहा था।
तब यक्षराज ने कालाति-क्रम होने के कारण कुपित होकर यह कहा। कि हे यक्षों! वह दुष्ट हेममाली आज क्यों नहीं आया! जाकर इसका निश्चय करो, यह एक ही बार नहीं कई बार कहा। यक्षों ने जबाब दिया कि, हे राजन ! वह तो अपने घर अपनी कान्ता के संग स्वेच्छापूर्वक रमण कर रहा है। उसने यह सुन कुपित होकर ,उस फूल वाले माली के लड़के हेममाली को तुरत ही बुलाया और वह भी देरी हो जाने से डर के मारे कांपने लगा। उसने आकर कुबेर देव से प्रणाम किया और सामने बैठ गया। उसको देखकर कुबेर के क्रोध से लाल नेत्र हो गये। क्रोधावेश में आने के कारण कांपने लगे और वचन कहे कि, हे दुष्ट! बदमाश तूने देवापमान किया है। इसलिए जा ,तुम्हें श्वेत कुष्ठ होकर सदा स्त्री का वियोग होगा। तू इस स्थान से गिरकर अधम स्थान पर चला जा। ऐसा कहते ही वह उस स्थान से गिर गया। बड़ा दुखी हुआ और कुष्ठ से सारा शरीर बिगड़ गया। भंयकर वन मे ध उसे पानी मिलता था और न भोजन। दिन में न सुख मिलता था और न रात मे नींद ही प्राप्त होती थी। छाया और धूप मे अत्यंत कष्ट पाने पर भी शिवपूजा के प्रभाव से उसे अपनी पूर्व स्मृति लुप्त न हुयी। पापभिभूत होकर भी उसे अपने पूर्व कर्म का स्मरण था। इसलिए भ्रमण करते करते वह पर्वतराज हिमालय में जा पहुंचा। वहां उसने तपोनिधि मुनिराज मार्कण्डेय जी को देखा। जिनकी की आयु हे राजन ! ब्रह्मा के सात दिन पर्यन्त है। वह उस मुनिराज के उस आश्रम पर गया जो ब्रह्म सभा के समान था। उस पापी ने दूर से ही उनके चरणों में प्रणाम किया। तब महाराज मार्कण्डेय जी ने उसे दूर से ही देखकर परोपकार करने की इच्छा से बुलाकर यह कहा। कि क्यों भाई ! तुम्हें यह कुष्ठ क्यों है और किस कारण तू निन्दनीय हुआ है? इस प्रकार उनके वचन सुनकर उत्तर दिया। कि महाराज ! मेरा नाम हेममाली है, मैं कुबेर का नौकर हूं। हे मुने! मैं नित्य मानसरोवर से पुष्प लाकर शिवजी की पूजा के समय कुबेर को अर्पण किया करता था। लेकिन एक दिन मैंने देर कर दी। कामाकुल होकर स्त्रीसंग करता रहा, उसका सुख लेता रहा। तब स्वामी ने कुपित होकर, हे मुने! मुझे शाप दे दिया है। अब इसी कारण मैं कुष्ठ से कष्ट पा रहा हूं ओर स्त्री से भी वियुक्त हूं। अब आप के निकट किसी शुभकर्म से यहां आपके समीप आ उपस्थित हुआ हूं। सज्जनों का स्वभाव ही परोपकार करने का होता है, इसलिए आप मुझे ऐसा जान कर इस पाप का प्रायश्चित बतलाइये।
मार्कण्डेय जी बोले कि, तुमने सत्य कहा, मिथ्याभाषण नहीं किया है। इसलिए मैं तुम्हें शुभ के देने वाले एक सुंदर व्रत का उपदेश करुगां। आषाढ़ कृष्ण पक्ष में तू योगिनी का व्रत कर। इस व्रत के पुण्य से तुम कुष्ठ से मुक्त हो जाओगे इसमें सन्देह मत करना। मुनि के वचनों को सुन उसने पृथ्वी पर दण्डवत् प्रणाम किया मुनि ने उसे उठाया तब उसे बड़ा हर्ष हुआ। मार्कण्डेय जी के उपदेश से उसने यह उत्तम व्रत किया और उसव्रत के फल के प्रभाव से उसको दिव्य रुप प्राप्त हो गया। स्त्री का संयोग उत्तम सुख प्राप्त हुआ,जिससे वह सुखी हो गया। हे राजन! इस प्रकार योगिनी का व्रत उत्तम व्रत वर्णन किया।
अस्सी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है वही फल इस योगिनी एकादशी के व्रत से मिलता है।बड़े बड़े पापों का नाश करनेवाली और बड़ा पुण्य फल देनेवाली है। हे राजध! इस प्रकार आपको यह आषाढ़-कृष्ण एकादशी का वर्णन कर दिया है।
अब आषाढ़ कृष्ण एकादशी का माहात्म्य पूरा हुआ।।